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कारिका ८८ ]
देवागम बोध-वाक्य-प्रमाः पृथक्' इस कारिकामें कहे गये वक्ता, श्रोता, प्रमाता तीनों और इनके बोध-वाक्य-प्रमाण ये तीनों भी सिद्ध होते हैं, और इसलिये जीव-शब्दके बाह्यार्थ-साधनमें दिये गये संज्ञात्वहेतुके असिद्धता तथा अनैकान्तिकताका दोष घटित नहीं होता और न हेतुशब्दवत्' इस दृष्टान्तके साधनधर्मवैकल्य ही घटित होता है, जिससे जीवकी सिद्धि न होवे--जीवको सिद्धि उक्त हेतु और दृष्टान्त दोनोंसे होती है। जीवके अर्थको जानकर प्रवृत्ति करनेवालेके संवाद-विसंवादको सिद्धि सिद्ध होती ही है।)
इति देवागमाऽऽप्त-मीमांसायां सप्तमः परिच्छेदः ।
अष्टम परिच्छेद
दैवसे सिद्धिके एकान्तकी सदोषता देवदेवार्थसिद्धिश्चेदैवं पौरुषतः कथम् ।
दैवतश्चेदनिर्मोक्षः पौरुषं निष्फलं भवेत् ।।८८।। _ 'यदि ( मीमांसकमतानुसार ) दैवसे ही अर्थकी-संपूर्णप्रयोजन रूप कार्यकी-सिद्धि मानी जाय तो फिर दैवरूप कार्यको सिद्धि पौरुषसे-कुशलाऽकुशल-समाचरण-लक्षण-पुरुषव्यापारसे-कैसे कही जा सकती है ?--नहीं कही जा सकती; क्योंकि वैसा कहनेसे प्रतिज्ञाको हानि पहुँचती है अर्थात् यह कहना बाधित होता है कि 'सर्व-अर्थकी सिद्धि दैवसे होती है। यदि पौरुषसे दैवकी सिद्धि न मानकर दैवान्तरसे दैवकी सिद्धि मानी जाय तो फिर मोक्षका अभाव ठहरता है क्योंकि पूर्व पूर्व देवसे उत्तरोत्तर दैवकी प्रवृत्ति तब समाप्त नहीं हो सकेगी-और मोक्षके अभावसे तत्कारणभूत पौरुष निष्फल हो जाता अथवा व्यर्थ ठहरता है।'
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