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८२ समन्तभद्र-भारती
[परिच्छेद ८ ( यदि यह कहा जाय कि पुरुषार्थसे दैवका क्षय होनेपर मोक्षकी सिद्धि होती है अतः पुरुषार्थको निष्फल नहीं कहा जा सकता, तो फिर वही प्रतिज्ञा-हानि उपस्थित होती है-पुरुषार्थसे मोक्षप्राप्तिको स्वीकार कर लेनेपर सब कुछ दैवसे उत्पन्न (सिद्ध ) होता है इस प्रकारकी जो प्रतिज्ञा है वह स्थिर नहीं रहतीबाधित ठहरती है। इसपर यदि मीमांसकोंके द्वारा यह कहा जाय कि मोक्ष-कारण-पौरुषके भी दैवकृत होनेसे परंपरासे मोक्ष भी दैवकृत सिद्ध होता है, इसमें प्रतिज्ञा-हानिकी कोई बात नहीं, तो यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि तब पौरुषसे ही वैसे दैवका सिद्ध होना ठहरता है, इसलिये दैवका एकान्त स्थिर नहीं रहता। दूसरे, धर्मसे ही अभ्युदय तथा निःश्रेयस-सिद्धि की जो एकान्तमान्यता है वह बाधित ठहरती है । और तीसरे, उनके द्वारा मान्य महेश्वरकी सिसृक्षा ( सृष्टि रचनेकी इच्छा ) के व्यर्थ होनेका प्रसंग उपस्थित होता है-अर्थात् सृष्टिको उत्पत्तिके देवाधीन होनेसे इस प्रकारके वचनोंका कहना नहीं बनता कि 'यह अज्ञ प्राणी अपनेको सुख-दुःख प्राप्त करने में असमर्थ है, ईश्वरकी इच्छासे प्रेरित हुआ ही स्वर्ग या नरकको जाता है' ।)
पौरुषसे सिद्धिके एकान्तकी सदोषता पौरुषादेव सिद्धिश्चेत पौरुषं दैवतः कथम् । . पौरुषाच्चेदमोघं स्यात् सर्व-प्राणिषु पौरुषम् ।।८।। 'र्याद पौरुषसे ही सब कुछ सिद्धिका एकान्त माना जाय तो यह प्रश्न पैदा होता है कि पौरुषरूप कार्यको सिद्धि कैसे ? उसे यदि दैवसे कहा जाय-पुण्य-पापरूप दैवी सम्पत्तिके आश्रित बतलाया जाय तो यह कहना उक्त एकान्तको माननेपर कैसे बन सकता है ? नहीं बन सकता; क्योंकि इससे प्रतिज्ञा-हानिकास्वीकृत एकान्तसिद्धान्तको बाधा पहुँचनेका-प्रसंग उपस्थित होता है तथा उक्त एकान्त स्थिर नहीं रहता। यदि बुद्धि-व्यव
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