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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद ७
जानेपर अन्तर्ज्ञेय (ज्ञानद्वैत) ही तत्त्व है, यह अभ्युपगम कैसे विरुद्ध नहीं पड़ेगा ? प्रमाणान्तरसे अभ्युपगम माननेपर सभीके अपने इष्टके अभ्युपगमका प्रसंग उपस्थित होगा, उसमें बाधा नहीं दी जा सकेगी। प्रमाणके भ्रान्त होनेपर बाह्यार्थी, तादृश-अतादृशों, प्रमेयों, अन्तर्ज्ञेय - बहिर्जेयों, इष्टाऽनिष्टों का विवेचन भी भ्रान्त ठहरेगा - स्वज्ञान-ग्राहककी अपेक्षासे अन्तर्ज्ञेय और बहिर्ज्ञेय दोनों ही बाह्यार्थ हैं और वे ग्राहक - प्रमाणके भ्रान्त होनेसे विभ्रमरूप भ्रान्त ही ठहरते हैं ऐसी स्थिति में अन्तर्ज्ञेय ( ज्ञानाद्वैत ) का एकान्त मानने पर हेयोपादेयका विवेक किस आधारपर बन सकता है ? नहीं बन सकता । और यदि प्रमाणको अभ्रान्त माना जाय तो बाह्यर्थको स्वीकार किया जाना चाहिये; क्योंकि बाह्यार्थके अभावमें प्रमाण-प्रमाणभासकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती; जैसा कि अगली कारिका में स्पष्ट किया गया है ।'
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बुद्धि तथा शब्दकी प्रमाणता और सत्यानृतकी व्यवस्था बाह्यर्थ के होने न होनेपर निर्भर
बुद्धि-शब्द-प्रमाणत्वं बाह्यार्थे सति नाऽसति । सत्याऽनृतव्यवस्थैवं युज्यतेऽर्थाप्त्यनाप्तिषु ||८७|
( स्वप्रतिपत्तिके लिये ) बुद्धिरूप - ज्ञानकी और ( परप्रतिपत्तिके लिये ) शब्दको प्रमाणता बाह्य अर्थके ( जो कि ग्राहककी अपेक्षासे ज्ञानरूप वा अज्ञानरूप है ) होनेपर अवलम्बित है, न होनेपर वह नहीं बनती - तब प्रमाणाभासता होती है । इसी प्रकार बाह्य अर्थके होने न होनेपर बुद्धि और शब्द दोनोंकी ( जो कि स्व-पर-पक्ष-साधन-दूषणात्मक होते हैं ) सत्य और असत्यकी व्यवस्था युक्त होती है-बाह्यार्थ के होनेपर दोनोंके सत्यकी और न होनेपर असत्यकी व्यवस्था बनती है।'
( ऐसी स्थिति में बाह्यार्थकी सिद्धि होनेसे 'वक्तृ-श्रोतृ-प्रमातृणां
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