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समन्तभद्र-भारती
[परिच्छेद ८ हुए पौरुषसे ही फलकी सिद्धि ठहरी। इधर दैवके सम्यग्ज्ञानपूर्वक उपायसे उपेयकी व्यवस्थिति और उधर दैवके अपरिज्ञानपूर्वक भी कदाचित् फलकी उपलब्धि देखने में आती है, इससे सम्यग्ज्ञानपूर्वक पुरुषार्थका एकान्त भी ठीक नहीं है । )
उभय तथा अवक्तव्य-एकान्तोंकी सदोपता विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् । . अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति ज्वाच्यमिति युज्यते ।।९।। 'स्याद्वादन्यायके विद्वेषियोंके दैव और पौरुष दोनों एकान्तोंका एकात्म्य नहीं बनता; क्योंकि इनमें परस्पर विरोध है ( इन दोनों एकान्तोंकी ) अवाच्यताका एकान्त माननेपर उन्हें अवाच्य कहना भी नहीं बनता है-कहनेसे स्ववचन-विरोध. घटित होता है।
दैव-पुरुषार्थ-एकान्तोंकी निर्दोष-विधि अबुद्धिपूर्वाऽपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षामिष्टाऽनिष्टं स्वपौरुषात् ।।९।। 'जो इष्ट या अनिष्ट-- अनुकूल वा प्रतिकूल-कार्य अपने बुद्धि-व्यापारको अपेक्षा रखे बिना ही घटित अथवा उपस्थित होता है उसे स्वदैवकृत समझना चाहिये- क्योंकि उसमें पौरुष गौण और दैव प्रधान हैं। और जो इष्ट या अनिष्ट कार्य अपने बुद्धिव्यापारको अपेक्षा रखकर घटित अथवा उपस्थित होता है उसे स्वपौरुषकृत समझना चाहिये; क्योंकि उसमें देव गौण और पौरुष प्रधान है।'
व्याख्या-दैव और पुरुषार्थ दोनोंकी व्यवस्था एक दूसरेकी अपेक्षाको साथमें लिये हुए है, एकके अभावमें दूसरेकी व्यवस्था नहीं बनती। वस्तुतः दोनोंके संयोगसे ही कार्यसिद्धि होती है,
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