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कारिका ८६ ]
देवागम लिये सुननेको मिलता है ) और प्रमाताका प्रमाण ( जो सुने हुए वाक्यके अर्थावबोधको लेकर वक्ताके अभिधेय-विषयमें योग्यअयोग्य अथवा सत्य-असत्यका निर्णय करता हैं ) ये तीनों एक दूसरेसे पृथक् जाने जाते हैं-भिन्न-भिन्न प्रतिभासित होते हैं.--. ऐसी स्थितिमें विज्ञानाद्वैतता बाधित ठहरती है, 'संज्ञात्वात्' हेतुके असिद्धताका दोष नहीं आता और न 'हेतु-शब्दवत्' इस दृष्टान्तके साध्य-विकलताका प्रसंग ही उपस्थित होता है।
(इसपर यदि यह कहा जाय कि बाह्य अर्थका अभाव होनेसे वक्ता, श्रोता और प्रमाता ये तीनों बुद्धि ( ज्ञान ) से पृथक्भूत नहीं हैं; वक्तादिके आभास-आकाररूप परिणत हुई बुद्धिके ही वक्ता आदिका व्यवहार होता है, वाक्यके अवतारका भी बोध ( बुद्धि ) के बिना कहीं कोई अस्तित्व नहीं बनता और प्रमाण स्वयं बोधरूप है ही । अतः ( वक्तादित्रयके बुद्धिसे पृथग्भूत न होनेके कारण ) उक्त हेतुके असिद्धतादि दोष बराबर घटित होता है, तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ) रूपादिग्राहक वक्ता तथा श्रोताके, व्यतिरिक्त-विज्ञानसन्तान-कलापके और स्वांश ( ज्ञान )-मात्रावलम्बी प्रमाणके विभ्रमको कल्पना किये जानेपर रूपादिकी पूर्णतः असिद्धि होती है और उस असिद्धिसे अन्तर्जेय जो ज्ञानाद्वैत है उसकी मान्यता विरुद्ध पड़ती है-रूपादिककी, अभिधेयकी, ग्राहक वक्ता तथा श्रोताकी विभ्रमरूप कल्पना किये जानेपर व्यतिरिक्त-विज्ञानका जो सन्तानकलाप है वह स्वांशमात्रग्राही सिद्ध नहीं होता; क्योंकि स्वांशमात्रावलम्बी ज्ञानोंके परस्पर असंचार है-स्वरूपका गमकत्व नहीं बनताजिससे अभिधान-ज्ञान और अभिधेय-ज्ञानका भेद होवे । स्वांशमात्रावलम्बी ज्ञानको भी यदि विभ्रम रूप माना जावे तो प्रमाणकी सिद्धि नहीं बनती; क्योंकि बौद्धोंके यहाँ अभ्रान्त ज्ञानको प्रमाण माना गया है । प्रमाणकी भी विभ्रम-रूपसे कल्पना किये
१. प्रत्यक्ष कल्पनापोढमभ्रान्तमिति वचनात् ।
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