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कारिका ८५ ]
बाह्यार्थ भ्रान्ति-विषयक विशिष्ट प्रतिपत्ति है - भ्रान्ति-संज्ञाओंका भ्रान्तिरूप अर्थका अभाव माननेपर भ्रान्ति-संज्ञासे भ्रान्ति-प्रतिपत्तिका योग नहीं बन सकेगा और उस योगके न बननेसे प्रमाणत्वप्रतिपत्तिका प्रसंग उपस्थित होगा । अर्थात् भ्रान्तिको भी सम्यक्ज्ञान मानना पड़ेगा जो इष्ट तथा अबाधित नहीं । इससे खरविषाण ( गधे के सींग ), खपुष्प ( गगनकुसुम ) आदि शब्दों का भी स्वार्थरहित होना बाधित हो जाता है । उनका स्वार्थ अभाव है, उसको न माननेपर खर - विषाणादिके भावका प्रसंग उपस्थित होगा । अतः इन खरविषाणादिके साथ भी उक्त संज्ञात्व-हेतुका व्यभिचार नहीं है ।'
देवागम
संज्ञात्व हेतुमें व्यभिचार-दोषका निराकरण बुद्धि-शब्दार्थ-संज्ञास्तास्तिस्रो बुद्ध्यादिवाचिकाः । तुल्या बुद्धयादिबोधाश्च त्रयस्तत्प्रतिविम्बिकाः ||८५ ||
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' ( यदि कोई मीमांसक - मतानुसारी यह कहे कि अर्थ, शब्द और ज्ञान ये तीनों बराबरकी संज्ञाएँ हैं', जीव-अर्थं जीव- शब्द और जीव-बुद्धि तीनोंकी 'जीव' संज्ञा होनेपर अर्थ पदार्थक जीवशब्द ही सबाह्यार्थ प्रसिद्ध है - बुद्धि-पदार्थंक तथा शब्द-पदार्थंक नहीं, ऐसी स्थिति में संज्ञापना हेतुके विपक्षमें भी व्यापनेसे व्यभिचार दोष आता है; क्योंकि संज्ञात्व-हेतुको बुद्धि, शब्द और अर्थादिक विशेषण से रहित सामान्य रूपसे हेतु कहा गया है, तो ऐसा कहनेवाले भी यथार्थवादी नहीं हैं; क्योंकि ) बुद्धि, शब्द और अर्थ तीनोंकी सज्ञाएँ और बुद्धि-आदिसंज्ञा-जनित बुद्धि-आदिविषयक तीनों बोध भी सर्वत्र स्वव्यतिरिक्त बुद्धयादि विषयके प्रतिबिम्बक होते हैं- उच्चारित शब्दसे जो ( अव्यभिचरित ) निश्चित - बोध होता है वही उसका स्वार्थ है, अन्यथा शब्दके
१. अर्थाऽभिधान- प्रत्ययास्तुल्यनामानः इति ।
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