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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद ७ निर्बाधता होती है वहाँ प्रमाण बनता है। इस तरह प्रमाणअप्रमाणकी व्यवस्थारूपसे कोई विरोध नहीं आता; क्योंकि एक ही जीवके आवरणके अभावविशेषके कारण सत्य-असत्य-प्रतिभासरूप संवेदन-परिणामकी सिद्धि उसी प्रकार बनती है जिस प्रकार कि किट्ट-कालिमाके अभावविशेषके कारण सुवर्णका उत्कृष्ट-जघन्य परिणाम बनता है।' ____यदि कोई कहे कि जीव कोई वस्तु ही नहीं है तो यह कहना नहीं बन सकता; क्योंकि जीवके ग्राहक ( अस्तित्व-सूचक ) प्रमाणका सद्भाव है, उसीको अगली कारिकामें बतलाया जाता है।
जीव शब्द संज्ञा होनेसे सबाह्यार्थ है जीव-शब्दः सबाह्यार्थः संज्ञात्वाद्धेतु-शब्दवत् । मायादि-भ्रान्ति-संज्ञाश्च मायाद्यः स्वैः प्रमोक्तिवत् ।।८४।।
जीव-शब्द बाह्यार्थ-सहित है-बाह्यमें जीवशब्दका वाच्य अर्थ स्वरूप-लक्षण-विशिष्ट जीव-वस्तु है- क्योंकि यह शब्द संज्ञा ( नाम ) है, जो शब्द संज्ञा या नामरूप होता है वह बाह्य अर्थके बिना नहीं होता, जैसे हेतु-शब्द -- अग्निमान् आदिके अनुमानमें प्रयुक्त हुआ धूम ( धुआँ ) आदि संज्ञात्मक हेतु-शब्द धुआँ आदि नामधारी बाह्य-पदार्थके अस्तित्वके बिना नहीं होता, सब ही हेतुवादी हेतु-शब्दको बाह्यार्थ-सहित मानते हैं; अन्यथा हेतु और हेत्वाभासमें कोई भेद नहीं बन सकता।
( यदि यहाँ कोई कहे कि माया ( इन्द्रजाल ) आदि भ्रान्तिकी संज्ञाएँ हैं, जिनका कोई बाह्यार्थ नहीं है अतः संज्ञापना हेतु अनेकान्तिक है-व्यभिचारी है-उससे जीव-शब्दका बाह्यार्थ होना अनिवार्य (लाज़िमी) नहीं ठहरेगा, तो यह कहना ठोक नहीं है क्योंकि ) मायादि जो भ्रांतिकी संज्ञाएँ हैं वे भी प्रमाणोक्तिके समान अपने अर्थको साथमें लिये हुए हैं। जिस प्रकार प्रमाण-वचनका ज्ञान-लक्षण बाह्यार्थ है उसी प्रकार मायादि भ्रान्ति-संज्ञाओंका भी
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