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कारिका ८२, ८३] देवागम
७५ ____ 'यदि बहिरंगार्थताका एकान्त माना जाय-ज्ञानको कोई परमार्थ वस्तु न मानकर बाह्य पदार्थको ही वस्तु माना जाय-- तो इससे प्रमाणाभासका-संशयादिरूप मिथ्याज्ञानका-लोप होता है; और प्रमाणाभासके लोपसे सभी विरूद्ध अर्थका प्रतिपादन करनेवालोंके कार्य-सिद्धि ठहरेगी-संवेदनाऽद्वैतवादी, ब्रह्माऽद्वैतवादी आदि किसी भी एकान्तवादी अथवा प्रत्यक्षादिके सर्वथा विरुद्ध कथन करनेवालोंको तब मिथ्यादृष्टि या असत्यवादी नहीं कहा जा सकेगा, यह दोष आएगा।'
उक्त उभय तथा अवक्तव्य एकान्तोंकी सदोषता विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नाऽवाच्यमिति युज्यते ।।८२।।
'अन्तरंग और बहिरंग ज्ञेयरूप दोनों एकान्तोंका एकात्म्य ( सहाऽभ्युपगम ) स्याद्वाद-न्यायके विद्वेषियोंके विरुद्ध है और इसलिये उनके उभय-एकान्तका सिद्धान्त नहीं बनता। अन्तरंगार्थ
और बहिरंगार्थ दोनों एकान्तोंको अवाच्यताका एकान्त माननेपर 'अवाच्य है' यह उक्ति भी नहीं बनती--अवाच्यतैकान्तके विरुद्ध पड़ती है।'
उक्त दोनों एकान्तोंमे अपेक्षा-भेदसे सामंजस्य भाव-प्रमेयाऽपेक्षायां प्रमाणाभास-निह्नवः । बहिःप्रेमायाऽपेक्षायां प्रमाणं नन्निभं च ते ।।८३।।
( हे अर्हन् भगवन् ! ) आपके मतमें भावप्रमेयकी अपेक्षास्वसंवेदन-प्रमाणके द्वारा सब कुछ प्रत्यक्ष होनेपर-और बाह्यप्रमेयकी अपेक्षा-इन्द्रियज्ञानके द्वारा प्रत्यक्ष होनेपर-प्रमाण तथा प्रमाणाभास दोनों बनते हैं-जहाँ विसंवाद होता है अथवा बाधा आती है वहाँ प्रमाणाभास बनता है और जहाँ विसंवाद न होकर
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