Book Title: Aptamimansa
Author(s): Samantbhadracharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 142
________________ ७३ कारिका ८० ] देवागम नहीं होता। सबके भ्रान्त होनेपर साध्य-साधनका ज्ञान भी सम्भव नहीं हो सकता। उसके सत्यरूपमें सम्भव होनेपर सर्वविभ्रमकी सिद्धि नहीं बनती । ) विज्ञप्ति-मात्रताके एकान्तमें साध्य-साधनादि नहीं बनते साध्य-साधन-विज्ञप्तेर्यदि विज्ञप्ति-मात्रता । न साध्यं न च हेतुश्च प्रतिज्ञा-हेतु-दोषतः ।।८।। 'यदि साध्य और साधन ( हेतु ) को विज्ञप्ति ( ज्ञान ) के विज्ञप्तिमात्रता मानी जाय-ज्ञानके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं ऐसा कहा जाय तो साध्य, हेतु और द्वितीय चकारसे दृष्टान्त ये तीनों नहीं बनते; क्योंकि ऐसा कहने में प्रतिज्ञादोष और हेतुदोष उपस्थित होता है-प्रतिज्ञासे स्ववचन-विरोध आता है और हेतुप्रयोग असिद्धादि दोषोंसे दूषित ठहरता है ।' व्याख्या–साध्य-युक्त पक्षके वचनको 'प्रतिज्ञा' और साधनके वचनको 'हेतु' कहते हैं। संवेदाद्वैतवादी (बौद्ध) अपने संवेदनाद्वैततत्त्वको सिद्ध करनेके लिये कहते हैं कि नीला पदार्थ और नीलेका ज्ञान ये अभेद रूप हैं; क्योंकि इनकी एक साथ उपलब्धिका नियम है ( सहोपलम्भ-नियमात् )। जैसे नेत्रविकारीके दो चन्द्रमाका दर्शन होते हुए भी चन्द्रमा वास्तवमें एक ही है वैसे ही नीला पदार्थ और नीलज्ञान दो न होकर ज्ञानाद्व तरूप एक ही वस्तु है । इस कथनमें प्रतिज्ञा-दोष जो घटित होता है वह स्ववचन-विरोध है; क्योंकि अपने द्वारा कहे हुए नीला-पदार्थरूप धर्म-धर्मीके भेदका और हेतु तथा दृष्टान्त दोनोंके भेदका अद्वतके साथ विरोध है। सर्वथा अद्वत-एकान्तकी मान्यतामें इनका कहना नहीं बनता और इसलिये साध्य-साधनादिके भेदरूप ज्ञानके अभेदरूप विज्ञानाद्वतताका कथन करनेवालेके स्ववचन-विरोधरूप प्रतिज्ञा-दोष सुघटित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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