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कारिका ७८ ]
देवागम देखकर ) अवाच्यताका एकान्त माना जाय तो तत्वसिद्धि निश्चयसे 'अवाच्य' है ऐसा कहना भी नहीं बन सकेगा—ऐसा कहनेसे ही वह वाच्य हो जानेके कारण स्ववचन-विरोधका प्रसंग उपस्थित होता है।'
हेतु तथा आगमसे निर्दोषसिद्धिकी दृष्टि वक्तर्यनाप्ते यद्धेतोः साध्यं तद्धतु-साधितम् ।
आप्ते वक्तरितद्वाक्यात्साध्यमागम-साधितम् ।।७८॥ 'वक्ताके आप्त न होनेपर जो ( तत्त्व ) हेतुसे साध्य होता है वह हेतु-साधित ( युक्तिसिद्ध ) कहा जाता है और वक्ताके आप्त होनेपर जो तत्त्व उस आप्तके वाक्यसे साध्य होता है उसे आगमसाधित ( शास्त्रसिद्ध ) समझना चाहिये।'
व्याख्या-यहाँ आप्त और अनाप्तके स्वरूपको मुख्यतासे ध्यान में लेनेकी जरूरत है। आप्तका स्वरूप इस ग्रन्थके प्रारम्भकी कुछ कारिकाओंमें विस्तारके साथ बतलाया जा चुका है, जिसका फलित-रूप इतना ही है कि जो वीतराग तथा सर्वज्ञ होनेसे युक्तिशास्त्रके अविरोधरूप यथार्थ वस्तुतत्त्वका प्रतिपादक एवं अविसंवादक है वह आप्त है और जो आप्तके इस स्वरूपसे भिन्न अथवा विपरीतरूपको लिये हुए विसंवादक है वह आप्त नहींअनाप्त है। तत्त्वके प्रतिपादनका नाम अविसंवाद है, जो सम्यग्ज्ञान से बनता है। जो तत्त्वका-यथार्थ वस्तुतत्त्वका-प्रतिपादन करता है वह अविसंवादक है और इसलिये उसका ज्ञान सम्यक्ज्ञान होना चाहिए, जो कि अबाधित-व्यवसायरूप होता है और जिसके प्रत्यक्ष ( साक्षात् ) तथा परोक्ष ( असाक्षात् ) ऐसे दो भेद हैं । संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय इन तोनों अज्ञानोंका नाश इस सम्यग्ज्ञानका फल है। ऐसी स्थितिमें उक्त-लक्षण-आप्तका वचन
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