Book Title: Aptamimansa
Author(s): Samantbhadracharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 143
________________ ७४ समन्तभद्र-भारती [परिच्छद ७ हेतु-दोष यह घटित होता है कि उक्त हेतु नील और नीलज्ञानकी पृथक् उपलब्धिके अभावसे नील और नीलज्ञान-भेदके अभावको सिद्ध करता है. जो कि असिद्ध है; क्योंकि दोनों अभावोंमें परस्पर सम्बन्ध सिद्ध नहीं है-सम्बन्धका अभाव उसी प्रकार है जिस प्रकार कि गधे और सींगमें सम्बन्धका अभाव है। जो हेतु साध्यके साथ अविनाभाव-सम्बन्ध न रखता हो वह साध्यको सिद्ध करने में समर्थ नहीं होता और इसलिये असिद्धहेतु कहलाता है। यदि यह कहा जाय कि 'जिस प्रकार अग्निके अभावसे धूमका अभाव और व्यापक ( वृक्ष ) के अभावसे व्याप्य ( शीशम )का अभाव सिद्ध किया जाता है; उसी प्रकार नील और नीलज्ञानकी पृथक् उपलब्धिके अभावसे दोनोंक भेदका अभाव सिद्ध किया जाता है, इसलिये हमारा हेतु असिद्ध नहीं है' तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि धूम और अग्निका कार्य-कारणभावसम्बन्ध सिद्ध होनेपर ही कारणके अभावमें कार्यका अभाव सिद्ध होता है तथा शोशम और वृक्षके व्याप्य-व्यापक-सम्बन्ध होनेपर ही व्यापकके अभावमें व्याप्यका अभाव सिद्ध होता है, अन्यथा नहीं-अर्थात् कार्य-कारणका और व्याप्य-व्यापकका यदि पहलेसे अस्तित्व सिद्ध नहीं है तो कारणके अभावमें कार्यका और व्यापकके अभावमें व्याप्यका अभाव सिद्ध नहीं होता। इस प्रकार भेद और पृथक् उपलब्धिका सम्बन्ध चूँकि विज्ञानाद्व तवादियोंके विरोधदोषके कारण सिद्ध नहीं बनता; जिससे पृथक् उपलब्धिका अभाव ( सहोपलम्भ-नियमरूप ) हेतु भेदाऽभावको सिद्ध करे इसलिये उनका उक्त पृथक् उपलब्धिका अभावरूप हेतु निश्चित नहीं-असिद्ध है। बहिरंगार्थता-एकान्तको सदोषता बहिरङ्गार्थतकान्ते प्रमाणाभास-निह्नवात् । सर्वेषां कार्यसिद्धिः स्याविरुद्धार्थाऽभिधायिनाम् ।।८१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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