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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद ७
व्यवहारका विलोप ठहरता है । जैसे अर्थपदार्थक जीव- शब्दसे 'जीवको नहीं मारना चाहिये' इस वाक्यमें जीव अर्थका प्रतिबिम्बक Mata उत्पन्न होता है वैसे ही बुद्धिपदार्थक जीव-शब्दसे 'जीव बोधको प्राप्त होता है इत्यादि बुद्धिस्वरूप जीव - शब्द से बुद्धि- अर्थका प्रतिबिम्ब बोध होता है और 'जीव' कहा जाता है इस शब्दपदार्थक जीव-शब्दसे शब्दका प्रतिबिम्बक बोध होता है । इस तरह शब्दसे चूँकि तीन प्रकारका बोध उत्पन्न होता है इसलिये बुद्धि आदि तीनों संज्ञाओंमेंसे प्रत्येकके तीन अर्थ जाने जाते हैं, जिससे संज्ञात्वहेतु में व्यभिचारदोष के लिये कोई स्थान नहीं रहता ।' संज्ञात्व- हेतुमें विज्ञानाद्वैतवादीकी शंकाका निरसन
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वक्तृ-श्रोतृ-प्रमातॄणां बोध-वाक्य-प्रमाः पृथक् । भ्रान्तावेव प्रमाभ्रान्तौ बाह्यार्थी तादृशेतरौ ।। ८६ ।।
( यदि कोई विज्ञानाद्वैतवादी - योगाचारमतानुयायी बौद्धका पक्ष लेकर यह कहे कि 'आपका संज्ञापना हेतु विज्ञानाद्वैतवादीके प्रति असिद्ध है; क्योंकि संज्ञाका विज्ञानसे पृथक् कोई अस्तित्व नहीं है. दृष्टान्त जो 'हेतु शब्दवत्' दिया गया है वह भी सावन - विकल है, हेतु शब्दके तदाकारज्ञानसे भिन्न दूसरे हेतु शब्दका अभाव है । संज्ञाके अवभासन में जो ज्ञान प्रवृत्त होता है उस संज्ञाभासज्ञानको हेतु माननेपर अर्थात् यह कहनेपर कि 'जीवशब्द सबाह्यार्थ हैं' संज्ञाभास ( शब्दाकार ) ज्ञानके होनेसे तो यह हेतु शब्दाभास ( शब्दाकार ) स्वप्नज्ञानके साथ व्यभिचारी है, जिसमें शब्दाकारके ज्ञानके होते हुए भी बाह्यार्थका अभाव होता है' तो ऐसी शंका करनेवालोंके समाधानार्थ आचार्यश्री स्वामी समन्तभद्र कहते हैं — )
'वक्ताका ( अभिधेय-विषयक ) बोध ( जा वाक्यकी प्रवृत्ति में कारण होता है ), श्रोताका वाक्य ( जो उसे अभिधेय परिज्ञानके
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