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कारिका ७६ ]
देवागम नहीं बनता-व्यवहारके लिये पारस्परिक अपेक्षा आवश्यक हैस्वरूपके लिये नहीं।' ___ इस तरह धर्म-धर्मिभूत सकल पदार्थोंकी कथंचित् आपेक्षिकी सिद्धि है-अविनाभावरूप व्यवहारकी दृष्टिसे; कथंचित् अनापेक्षिकी सिद्धि है-पूर्व प्रसिद्ध स्वरूपकी दृष्टिसे; कथंचित् उभयी सिद्धि है-अपेक्षा-अनपेक्षारूप दोनों धर्मोंके क्रमापितकी दृष्टिसे; कथंचित् अवक्तव्या सिद्धि है-उक्त दोनों धर्मोंके सहार्पित ( युगपत्कथन ) की दृष्टिसे । शेष 'आपेक्षिकी' और 'अवक्तव्या' आदि भंगोंको भी इसी प्रकार घटित करके यहाँ भी सप्तभंगी प्रक्रियाकी योजना कर लेनी चाहिये, जो कि नयविशेषकी दृष्टिसे पूर्ववत् अविरुद्ध है।
इति देवागमाप्त-मीमांसायां पंचमः परिच्छेदः ।
षष्ठ परिच्छेद सर्वथा हेतुसिद्ध तथा आगमसिद्ध एकान्तोंकी सदोषता सिद्धं चेद्धतुतः सर्व न प्रत्यक्षादितो गतिः । सिद्धं चेदागमात्सर्व विरुद्धार्थ-मतान्यपि ।।७६।।
'यदि ( केवल अनुमानवादी बौद्धोंके मतानुसार ) सब कुछ ( एकान्ततः ) हेतुसे ही सिद्ध माना जाय-हेतुके बिना किसी भी कार्य-कारणादिरूप तत्त्वकी सिद्धि-निश्चितिको अंगीकार न किया जाय-तो प्रत्यक्षादिसे फिर कोई गति-सिद्धि, व्यवस्थिति अथवा ज्ञानको प्राप्ति-नहीं बन सकेगी ( और ऐसा होनेपर हेतुमूलक अनुमानज्ञान भी नहीं बन सकेगा; क्योंकि अनुमानके लिये धर्मीका,
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