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कारिका ७३ ]
देवागम हैं-वस्तुतः इनमें कोई भी व्यवस्थित नहीं होता। इस तरहकी आपेक्षिकी सिद्धि माननेपर नील-स्वलक्षण और नीलज्ञान ये दोनों भी व्यवस्थित नहीं होते; क्योंकि दोनों विशेषण-विशेष्यकी तरह आपेक्षिक हैं। जिनकी सर्वथा आपेक्षिक-सिद्धि होती है उनकी कोई व्यवस्था नहीं है, जैसे परस्पर एक दूसरेको पकड़े हुए नदीमें डूबनेवाले दो मनुष्योंकी कोई व्यवस्था नहीं बनती-( दोनों ही डूबते हैं । ) वैसे ही नील और नील-ज्ञानमें सर्वथा अपेक्षाकृतसिद्धिकी बात है-नीलज्ञानके विना नील सिद्ध नहीं होता, अज्ञेयत्वका प्रसंग आनेसे और तथा-संवेदन-निष्ठ होनेसे, और नीलकी अपेक्षाके विना नीलज्ञान सिद्ध नहीं होता; क्योंकि नीलज्ञानके नीलसे आत्मलाभ बनता है, अन्यथा नीलज्ञानके निविषयत्वका प्रसंग आता है और बौद्धोंने ज्ञानको निविषय माना नहीं। इस तरह एकके अभावमें दूसरेका भी अभाव होनेसे नील और नीलज्ञान दोनोंका ही अभाव ठहरता है। जब ज्ञान और ज्ञेय दोनों ही न रहे तब सर्व-शून्यताका प्रसंग उपस्थित होता है। ___आपेक्षिक-सिद्धिके एकान्तमें दोष देखकर यदि यौग-मतवादी यह कहे कि 'धर्म-धर्मीकी सर्वथा आपेक्षिक-सिद्धि नहीं किन्तु अनापेक्षिक-सिद्धि है; क्योंकि धर्म-धर्मीके प्रतिनियत-बुद्धिका विषयपना है, नोलादिके स्वरूपकी तरह। सर्वथा अनापेक्षिकत्वका अभाव होनेपर प्रतिनियत-बुद्धिका विषयपना नहीं बनता, तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि सर्वथा अनपेक्षा-पक्षमें भी अन्वयव्यतिरेक घटित नहीं होते। अन्वय सामान्यको और व्यतिरेक विशेषको कहते हैं, दोनों परस्पर अपेक्षाके रूपमें ही तिष्ठते हैं, दोनोंकी सर्वथा अनापेक्षिक-सिद्धि माननेपर न सामान्य स्थिर रहता है और न विशेष । प्रतिनियतबुद्धि-विषयोंमें भी प्रतिनियतपदार्थता सापेक्षरूपमें होती है, नील-पीतकी तरह। नील और पीतको अनापेक्षिक-सिद्धि माननेपर यह नील है, यह पीत है ऐसा निश्चय नहीं बनता।
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