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कारिका ७१, ७२ ] देवागम
६५ नुसार द्रव्यको अवास्तव और पर्यायको वास्तव बतलाकर द्रव्यका अभाव माना जाय तो द्रव्य-पर्याय दोनोंमेंसे किसीका भी सद्भाव नहीं बन सकेगा-अर्थक्रिया-लक्षण-वस्तुमें पदार्थकी तब कोई उपपत्ति अथवा व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी; क्योंकि पर्यायनिरपेक्ष केवल द्रव्य और द्रव्यनिरपेक्ष केवल पर्याय अर्थ-क्रियाका निमित्त नहीं होता, निमित्त माननेपर क्रम-योगपद्यका विरोध उपस्थित होगा-- सर्वथा एकस्वभावरूप द्रव्य या पर्यायके क्रमयोगपद्य घटित नहीं होता, क्रम-योगपद्यके घटित न होनेपर अर्थक्रिया नहीं बनती और अर्थ-क्रियाके न बननेपर वस्तुका अस्तित्व न रहकर अभाव ठहरता है। अतः द्रव्य और पर्याय दोनोंमेंसे किसीका भी लोप करनेपर दूसरेका भी लोप उपस्थित होता है और वस्तुतत्त्वकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकेगी।
द्रव्यका लक्षण गुण-पर्यायवान् है; जैसा कि 'गुण-पर्ययवद् द्रव्यम्' इस तत्त्वार्थसूत्रसे जाना जाता है, जिसमें गुण सहभावी ( युगपत् ) और पर्याय क्रमभावी होते हैं। पर्यायका लक्षण 'तद्भावः परिणामः' सूत्रके अनुसार तद्भाव-उस उस प्रतिविशिष्टरूपसे होना है, जो कि क्रमाऽक्रमरूपमें होता है । क्रमशः परिणमनको ‘पर्याय' और अक्रम ( युगपत् ) परिणमनको 'गुण' कहते हैं। द्रव्य और पर्याय दोनोंकी यह लक्षण-भिन्नता दोनोंके कथश्चित् नानापनको सिद्ध करती है ।
इस तरह द्रव्य और पर्यायमें कथंचित् नानापना ही है, स्वलक्षणके भेदसे; कथंचित् एकपना ही है, अशक्य-विवेचनके कारण; कथंचित् उभयपना ही है, दोनोंकी क्रमार्पित-विवक्षासे; कथंचित् अवक्तव्यपना है, दोनोंके सहार्पणकी दृष्टिसे। शेष तीन भंगोंको भी इसी प्रकारसे घटित कर लेना चाहिये।
इति देवागमाप्त-मीमांसायां चतुर्थः परिच्छेदः ।
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