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कारिका ७० ]
देवागम
परमार्थतः द्वित्वसंख्याके अभावपर संख्येय जो पुरुष और चैतन्य उनकी भी कोई व्यवस्था नहीं बनती-ऐसी कोई वस्तु ही सम्भव नहीं जो सकलधर्मोसे शून्य हो। अतः सांख्योंका यह कार्य-कारणादिकी अनन्यताका एकान्त भी वैशेषिकोंके अन्यता एकान्तकी तरहसे नहीं बन सकता।'
उक्त उभय तथा अवक्तव्य एकान्तोंकी सदोषता विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नाऽवाच्यमिति युज्यते ।।७।।
'यदि कार्य-कारणादिकी अन्यता और अनन्यताके दोनों एकान्त एक साथ माने जाँय तो वे स्याद्वाद-न्यायके विद्वेषियोंके-सर्वथा एकान्तवादियोंके-यहाँ युगपत् नहीं बन सकते; क्योंकि उनमें परस्पर विरोध होनेसे उनका एकात्म्य अथवा तादात्म्य असंभव है। यदि अवाच्यता ( अनभिलाप्यता ) का एकान्त माना जायकार्य-कारणादिका भेद-अभेद सर्वथा अवाच्य है ऐसा कहा जायतो यह कहना भी नहीं बन सकता; क्योंकि इस कहनेसे वह वाच्य ( अभिलाप्य ) हो जाता है। और जब यह कहना भी नहीं बन सकता तब अवाच्यतैकान्त-सिद्धान्तका परको प्रतिपादन कैसे बन सकता है ? नहीं बन सकता।
( यदि बौद्धोंके द्वारा यह कहा जाय कि परमार्थसे तो वचनद्वारा किसी भी पदार्थ अथवा सिद्धान्तका प्रतिपादन नहीं बनतासंवृतिके द्वारा ही बनता है, तो संवृतिके स्वयं मिथ्या होनेसे उसके द्वारा सत्यसिद्धान्तादिका प्रतिपादन कैसे बन सकता है ? नहीं बन सकता। अतः संवृतिरूप-वचनके द्वारा प्रतिपादन करनेपर भी अवाच्यताका एकान्त स्थिर नहीं रह सकता।)
__एकता और अनैकताकी निर्दोष व्यवस्था
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