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समन्तभद्र भारती
[परिच्छेद ४
भेदका अभाव होनेपर भी कारण तो एक रहता हो है-नित्य होनेसे उसका अभाव नहीं होता, तो ) दोको संख्याका विरोध उपस्थित होता है-कार्य और कारण सर्वथा एक होनेपर यह कार्य है और यह कारण है ऐसे दोकी संख्याका निर्देश नहीं बन सकता; जैसे कि वस्तुके सर्वथा एक होनेपर उसमें कार्य-कारणभाव नहीं बनता ।
__ यदि द्वित्व-संख्याको संवृतिरूप कल्पित अथवा औपचारिक ही माना जाय तो यह संवृति ( परमार्थके विपरीत हानेसे ) जब मृषा ही है तब द्वित्व-संख्या भी मृषा ही ठहरती है-ऐसी स्थितिमें प्रधानकी जानकारी तब कैसे हो सकेगी? प्रत्यक्षसे वह हो नहीं सकती; क्योंकि प्रधान प्रत्यक्षका विषय नहीं। अनुमानसे भी नहीं हो सकती; क्योंकि अभ्रान्त लिङ्गका अभाव है। आगमसे भी नहीं बन सकती; क्योंकि शब्दके भी भ्रान्तत्व माना गया है; और भ्रान्तलिङ्गसे अभ्रान्त साध्यकी सिद्धि होती नहीं, सिद्धि मानने पर अतिप्रसंग-दोष उपस्थित होता है।'
( इसी प्रकार पुरुष और चैतन्य जो आश्रय-आश्रयीरूप हैं उनकी एकता माननेपर एक दूसरेका अभाव ठहरता है; पुरुष में चैतन्यके अनुप्रवेशपर पुरुषमात्रका और चैतन्यमें पुरुषके अनुप्रवेशपर चैतन्यमात्रका प्रसंग उपस्थित होता है और इससे सांख्यमतानुयायिओंके यहाँ सर्वथा एकत्वकी मान्यतापर पुरुष और चैतन्य इन दोमेंसे किसी एकका अभाव सिद्ध होता है। दोमेंसे एकका अभाव होनेपर शेषका भी अभाव ठहरता है; क्योंकि दोनोंमें परस्पर अविनाभाव-सम्बन्ध है। पुरुष आश्रय है और चैतन्यस्वभाव उसका आश्रयी है-आश्रयके बिना आश्रयीका और आश्रयीके बिना आश्रयका कोई अस्तित्व नहीं बनता। दोनोंके सर्वथा एक होनेपर द्वित्व-संख्या भी नहीं बनती और द्वित्वसंख्यामें संवृतिकी कल्पना करनेपर शून्यताका प्रसंग आता है; क्योंकि
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