________________
कारिका ६८, ६९ ] देवागम
६१ कार्यकी भ्रान्तिसे कारणकी भ्रान्ति तथा उभयाभावादिक कार्य-भ्रान्तरणु-भ्रान्तिः कार्य-लिङ्गं हि कारणम् । उभंयाऽभावतस्तत्स्थं गुण-जातीतरच्च न ॥६॥
'भूतचतुष्करूप-कार्यके भ्रान्तिरूप होनेसे तत्कारण परमाणु भी भ्रान्तिरूप ठहरेंगे-तब वस्तुतः उनकी अस्तित्व-सिद्धि ही नहीं बन सकेगी; क्योंकि कारण कार्य-लिङ्गक होता है-कार्यसे ही उसे जाना जाता अथवा अनुमान किया जाता है। कार्य-कारण दोनोंके भ्रान्तिरूप अभावसे उनमें रहनेवाले गुण-जाति-क्रियादिक भी नहीं बन सकेंगे-जैसे गगनकुसुमोंके अभावमें उनकी कोई गन्ध भी नहीं बन सकती।'
कार्य-कारणादिका एकत्व माननेपर दोष एकत्वेऽन्यतराभावः शेषाऽभावोऽविनाभुवः । द्वित्व-संख्या-विरोधश्च संवृतिश्चेन्मृषैव सा ।।६९।। 'यदि ( सांख्यमतानुसार ) कार्य-कारणादिका सर्वथा एकत्व माना जाय-कार्य जो महत् आदि और कारण जो प्रधान दोनोंका तादात्म्य अंगीकार किया जाय-तो एकको मान्यतापर दूसरेका अभाव ठहरेगा-प्रधानरूप कारणकी मान्यतापर महत् आदिरूप कार्यकी पृथक् कोई मान्यता नहीं बन सकेगी, दोनोंके सर्वथा एक होनेसे । साथ ही कार्यके अभावपर शेष जो कारण उसका भी अभाव ठहरेगा; क्योंकि कार्यका कारणके साथ अविनाभाव-सम्बन्ध है, कारण कार्यकी अपेक्षा रखता है, सर्वथा कार्यका अभाव होनेपर कारणत्व बन नहीं सकता और इस तरह सर्वके अभावका प्रसंग उपस्थित होता है। इसके सिवाय, ( यदि यह कहा जाय कि महत् आदि कार्यका प्रधानरूप-कारणमें अनुप्रवेश हो जानेसे उत्तर-सृष्टिक्रमकी अपेक्षा पृथक्सत्तारूप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |