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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद ५
उक्त उभय तथा अवक्तव्य एकान्तोंकी सदोषता विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति ऽवाच्यमिति युज्यते ॥७४।। 'यदि आपेक्षिक-सिद्धि और अनापेक्षिक-सिद्धि दोनोंका एकान्त माना जाय तो वह स्याद्वादन्यायसे द्वेष रखनेवालोंके-उस न्यायका आश्रय न लेनेवाले सर्वथा एकान्तवादियोंके-यहाँ नहीं बनता; क्योंकि दोनों एकान्तोंमें परस्पर विरोध है-उनकी युगपत् विवक्षा सदसत् ( भावाऽभाव ) एकान्तकी तरह नहीं बनती। यदि ( विरोधके भयादिसे ) अवाच्यताका एकान्त माना जायसिद्धिको सर्वथा अवाच्य कहा जाय तो यह अवाच्य कहना भी नहीं बनता; क्योंकि इस कथनसे ही वह कथंचित् वाच्य हो जाती है, और उससे सर्वथा अवाच्यताका सिद्धान्त बाधित ठहरता है।'
उक्त आपेक्षिकादि एकान्तोंकी निर्दोष-व्यवस्था धर्म-धर्म्यविनाभावः सिद्धयत्यन्योऽन्य-वीक्षया । न स्वरूपं स्वतो ह्येतत् कारक-ज्ञापकाऽङ्गवत् ।।७५।। 'धर्म और धर्मीका अविनाभाव-सम्बन्ध ही एक दूसरेकी अपेक्षासे सिद्ध होता है न कि स्वरूप-स्वरूप तो अपने कारणकलापसे धर्म-धर्मीकी विवक्षासे पूर्व ही सिद्धत्वको प्राप्त है; क्योंकि वह स्वतः सिद्ध है, कारक और ज्ञापकके अङ्गोंकी तरह-जैसे कारकके दो अंग ( अवयव ) कर्ता-कर्म और ज्ञापकके दो अंग बोध्य-बोधक ( वेद्य-वेदक अथवा प्रमेय-प्रमाण ) ये अपने अपने स्वरूप-विषयमें दूसरे अंगकी ( कर्ता कर्मकी और कर्म कर्ताकी बोध्य-बोधककी, बोधक बोध्यकी ) अपेक्षा नहीं रखते--अन्यथा --अपेक्षा-द्वारा एकके स्वरूपको दूसरेके आश्रित माननेपर दोनोंके ही अभावका प्रसंग उपस्थित होता है। परन्तु कर्ता-कर्मका और ज्ञाप्य-ज्ञापकका व्यवहार परस्पर एक दूसरेकी अपेक्षाके बिना
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