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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद २ 'अवाच्य है' ऐसा कहना भी नहीं बनता-इस कहनेसे ही वह 'वाच्य' हो जाता है, अवाच्य नहीं रहता; क्योंकि सर्वथा 'अवाच्य' की मान्यतामें कोई वचन-व्यवहार घटित ही नहीं हो सकता।'
पृथक्त्व-एकत्व एकान्तीका अवस्तुत्व-वस्तुत्व अनपेक्ष्ये पृथक्त्वैक्ये ह्यवस्तु द्वय-हेतुतः। तदेवैक्यं पथक्त्वं च स्वभेदैः साधनं यथा ।।३३।। 'एक दूसरेको अपेक्षा न रखनेवाले पृथक्त्व और एकत्व च कि हेतुद्वयसे अवस्तु हैं-एकत्व-निरपेक्ष होनेसे पृथक्त्वका और पृथक्त्व-निरपेक्ष होनेसे एकत्वका कहीं कोई अस्तित्व नहीं बनताअतः एकत्व और पृथक्त्व सापेक्षरूपमें विरोधको प्राप्त न होनेसे उसी प्रकार वस्तत्वको प्राप्त है जिस प्रकार कि साधन (हेतु )साधन अपने पक्षधर्मत्व, सपक्षमें सत्त्व और विपक्षसे व्यावृत्तिरूप भेदों तथा अन्वय-व्यतिरेकरूप भेदोंके साथ सापेक्षताके कारण विरोधको न रखते हुए वस्तुत्वको प्राप्त है।'
एकत्व-पृथक्त्व एकान्तोंकी निर्दोषव्यवस्था सत्सामान्यात्त सर्वैक्यं पृथग्द्रव्यादि-भेदतः ।
मेदाऽभेद-विवक्षायामसाधारण-हेतुवत् ।।३४॥ '( यदि यह कहा जाय कि एकत्वके प्रत्यक्ष-बाधित होनेके कारण और पृथक्त्वके सदाद्यात्मकतासे बाधित होनेके कारण प्रतीतिका निर्विषयपना है तब सब पदार्थो में एकत्व और पृथक्त्वको कैसे अनुभूत किया जा सकता है ? तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ) सत्ता-अस्तित्वमें-समानता होनेकी दृष्टिसे तो सब ( जीवादि पदार्थ) एक हैं-इसलिये एकत्वकी प्रतीतिका विषय सत्सामान्य होनेसे वह निविषय नहीं है और द्रव्यादिके भेदको दृष्टिसे-द्रव्य, गुण और कर्मकी अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और
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