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कारिका ६१ ]
देवागम कर्मरूप त्रिक है उसका एक-दूसरेसे अन्यत्व इष्ट किया जाता है ( तो उसमें जो बाधा आती है उसे आगे बतलाया जाता है। ) ___ व्याख्या-यहाँ वैशेषिकमतानुसार 'कार्य' शब्दसे चलनादि क्रियारूप कर्मका, तन्तु आदि अवयवरूप कारणके अवयवीका, संयोगादिरूप अनित्य गुणका और प्रध्वंसाभावका ग्रहण है, 'कारण' शब्द समवायीका, समवायिवान्का ( कर्मवान्का, अनित्यगुणवान्का, पटादि अवयवोंका ) और प्रध्वंसके प्रति कारणका वाचक है; 'गुण' शब्द नित्य-गुणका, 'गुणी' शब्द गुणके आश्रयभूत द्रव्यका, 'सामान्य' शब्द पर-अपर-जातिका और 'सामान्यवान्' शब्द द्रव्यगुण-कर्मरूप अर्थका बोधक है। वैशेषिकमतका कथन है कि क्रिया-क्रियावान्का; समवाय-समवायीका, अवयव-अवयवीका, गुण-गुणीका, विशेषण-तद्विशेष्यका, सामान्य-तत्सामान्यवान्का और अभाव-तद्विशेष्यका एक-दूसरेसे सर्वथा भिन्नपना ही है; क्योंकि उनका भिन्न प्रतिभास होता है, सह्याचल-विन्ध्याचलकी तरह।
अपने इस 'भिन्नप्रतिभासत्व' हेतुको असिद्ध-विरुद्धादि दोषोंसे रहित सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है और उस प्रयत्नमें एक बात यह भी कही गई है कि कार्य-करणादिका लक्षण एक दूसरेसे भिन्न है और वह भिन्न-लक्षण भिन्न प्रतिभासका हेतु है, वस्तु यदि एक है तो उसका भिन्न-लक्षणसे प्रतिभास नहीं होता। इससे भिन्न-प्रतिभास हेतु विरुद्ध नहीं है, क्योंकि भिन्नलक्षणलक्षित विपक्षमें उसको वृत्तिका अभाव है। दूसरी बात यह भी कही गई है कि जिनका ऐसा अनुमान है कि कार्य-कारणका, गुण-गुणीका तथा सामान्य-सामान्यवान्का एक-दूसरेके साथ तादात्म्य हैअभेद है; क्योंकि उनका देश (क्षेत्र) अभिन्न है। जिनका तादात्म्य नहीं होता उनका देश अभिन्न नहीं होता, जैसे कि सह्याचल और विन्ध्याचलका । प्रकृत कार्य-कारणादिका देश अभिन्न है । अतः उनका तादात्म्य है; और इस अनुमानसे वे कार्य-कारणादिकी
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