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कारिका ५८]
देवागम यह सब सहेतुक होता है-घटार्थीके शोकका कारण घटका नाश है, मुकुटा के हर्षका कारण मुकुटका उत्पाद है और सुवणार्थीके मध्यस्थ-भावका कारण सुवर्णकी स्थिति है-जो सुवर्ण घटके रूपमें था वही मुकुटके रूपमें विद्यमान है, इससे उसके लिये शोक तथा हर्षका कोई कारण नहीं रहता। बिना हेतुके उन घट-मुकुटसुवर्णार्थियोंके शोकादिकी उत्पत्ति नहीं बनती।'
(बौद्धोंका जो यह कहना है कि विषादादिके कोई हेतु नहीं होते; किन्तु पूर्वविषादादिके वासनामात्र-निमित्तसे विषादादिक उत्पन्न होते हैं, वह ठीक नहीं; क्योंकि पूर्वविषादादिके वासनामात्र निमित्तके होते हुए भी उन विषादादिके नियमका संभव नहीं। ) ।
इस तरह लौकिक जनोंकी उत्पादादि-विषयक-प्रतीतिके भेदसे यह सिद्ध है कि वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ऐसे तीन रूपमें व्यवस्थित है । अब एक दूसरे दृष्टान्त-द्वारा इस विषयको और स्पष्ट किया जाता है।
वस्तुतत्त्वकी त्रयात्मकता पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोति दधिव्रतः ।
अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ।। ६० ।। "जिसके दुग्ध लेनेका व्रत है-आज मैं दूध ही लूँगा ऐसी प्रतिज्ञा है-वह दही नहीं खाता, जिसके दही लेनेका व्रत है वह दुग्ध नहीं पीता और जिसका गोरस न लेनेका व्रत है वह दूध-दही दोनों ही नहीं खाता। इससे मालूम होता है कि वस्तुतत्त्व त्रयात्मक है-युगपत् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप है।' ___ व्याख्या-एक ही वस्तुमें प्रतीतिका नानापन उस वस्तुके विनाश, उत्पाद और स्थिति ( ध्रौव्य ) का साधक जान पड़ता है-जो दूधरूपसे नाशको प्राप्त हो रहा है वही दधिरूपसे उत्पद्यमान और गोरसरूपसे विद्यमान (ध्रौव्य ) है; क्योंकि दूध और
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