________________
५६
समन्तभद्र-भारती
परिच्छेद [ ४
भिन्नताके एकान्तको बाधित ठहराते हैं, वह ठीक नहीं है; क्योंकि देशाऽभेद दो प्रकारका है - एक शास्त्रीय और दूसरा लौकिक । कार्य-कारणादिका शास्त्रीय देशाऽभेद असिद्ध है - शास्त्रकी अपेक्षासे पटादिरूप कार्यका स्वकीय कारण तन्तुसमूह और तन्तुओंका कारण कपासादि इस तरह सबका स्व- अन्य कारणदेशकी दृष्टिसे देशभेद ही है । लौकिक देशाऽभेदका आकाश - आत्मादिके साथ व्यभिचारदोष घटित होता है; क्योंकि लौकिक देशकी अपेक्षा आकाश और आत्मादिके भिन्न देशका अभाव होने पर भी उनका तादात्म्य नहीं है ।
1
उक्त भिन्नतैकान्त में दोष
एकस्याsनेक वृत्तिर्न भागाभावाद्बहूनि वा । भागित्वाद्वाऽस्य नैकत्वं दोषो वृत्तेरनार्हते || ६२ ||
( यदि वैशेषिकमतानुसार कार्य-कारण, गुण-गुणी और सामान्य सामान्यवान्को सर्वथा एक दूसरे से भिन्न माना जाय तो ) एककी— पटादि अवयवीरूप कार्य द्रव्यादिकी - ( अपने आरम्भक तन्तु आदि) अनेकों में - कारणादिकमें-- वृत्ति - प्रवृत्ति नहीं बनती; क्योंकि उस एकके विभाग के अभावसे निरंशपना माना गया है- जबकि वृत्ति होनी चाहिये; अन्यथा कार्य-कारणभावादिका विरोध उसी तरह घटित होगा जिस तरह अकार्य-कारणरूप तन्तु-घटका और मृत्पिण्ड पटका कार्य कारणभाव विरुद्ध होता है। यदि ( अवयवी आदि ) एकको भागित्वरूप आश्रित करके वृत्ति मानी जाय तो इससे एकका एकत्व स्थिर नहीं रहता- वह विभक्त होकर बहुरूपमें परिणत हो जाता है । इसके सिवाय यह प्रश्न पैदा होता है कि एककी अनेक में वह वृत्ति तन्तु आदिके लक्षण आधारके प्रति एकदेशरूपसे होती हैं या सर्वात्मक रूपसे ? एक देशरूपसे वह नहीं बनती; क्योंकि एक पटादि कार्यद्रव्यके निष्प्रदेश होनेसे तन्तु
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org