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समन्तभद्र-भारती [ परिच्छेद ४ दही दोनों ही गोरसरूप हैं। गोरसकी एकताके होते हुए भी जो दधिरूप है वह दुग्धरूप नहीं; जो दुग्धरूप है वह दधिरूप नहीं; ऐसा व्रतियोंके द्वारा द्रव्य-पर्यायकी विभिन्न प्रतीति-वश भेद किया जाता है। यदि प्रतीतिमें त्रिरूपता न हो तो एकके ग्रहणमें दूसरे का त्याग नहीं बनता। ___ इस तरह वस्तुतत्त्वके त्रयात्मक साधन-द्वारा उसका प्रस्तुत नित्य-अनित्य और उभय-साधन भी विरोधको प्राप्त नहीं होता; क्योंकि एक ही वस्तुमें स्थिरताके व्यवस्थापन-द्वारा यह कथंचित् नित्य और नाशोत्पादके प्रतिष्ठापन-द्वारा कथंचित् अनित्य सिद्ध होता है और इसलिये यह ठीक कहा जाता है कि सम्पूर्ण वस्तुसमूह कथंचित् नित्य ही है, कथंचित् अनित्य ही है, कथंचित् उभयरूप ही है, कथंचित् अवक्तव्य ही है, कथंचित् नित्यावक्तव्य ही है, कथंचित् अनित्यावक्तव्य ही है और कथंचित् उभयावक्तव्य ही है। और इस सप्तभंगीकी व्यवस्थापन प्रक्रियाको उसी प्रकारसे नयप्रमाणकी अपेक्षासे योजित करना चाहिये जिस प्रकार कि वह भावादि तथा एकादि सप्तभंगियोंकी व्यवस्थाके लिये की गई है।
इति देवागमाप्तमीमांसायां तृतीयः परिच्छेदः
चतुर्थ परिच्छेद
कार्य-कारणादिकी सर्वथा भिन्नताका एकान्त कार्य-कारण-नानात्वं गुण-गुण्यन्यतापि च । सामान्य-तद्वदन्यत्वं चैकान्तेन यदीष्यते ॥६१।। 'यदि (वैशेषिकमतावलम्बियोंके मतानुसार एकान्तसे-सर्वथा रूपमें-कार्य-कारणका भेद माना जाता है, गुण-गुणीकी भिन्नता स्वीकार की जाती और सामान्य तथा सामान्यवान् जो द्रव्य-गुण
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