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समन्तभद्र-भारती [ परिच्छेद ३ यह कहा जाय कि उत्पाद और विनाश दोनोंका एक ही हेतु होनेपर दोनों अभिन्न ठहरते हैं, तो यह ठीक नहीं, क्योंकि उत्पाद और विनाश दोनों लक्षणभेदके कारण एक दूसरेसे कथंचित् भिन्न हैं-कार्योत्पादका लक्षण स्वरूपलाभ है और हेतुक्षयका लक्षण स्वभावप्रच्युति है। इस तरह भिन्न लक्षणसे लक्षित होनेके कारण दोनों कथंचित् भिन्न हैं--सर्वथा भिन्न नहीं। जाति आदिके अवस्थानके कारण नाश और उत्पाद दोनों भिन्न ही नहीं, कथंचित् अभिन्न भी हैं; क्योंकि मिट्टी आदि द्रव्यके बिना घटका नाश और कपालका उत्पाद नहीं बनता-नाश और उत्पाद दोनों पर्यायकी अपेक्षासे हैं, जात्यादिके अवस्थानरूप सद्द्रव्यकी अपेक्षासे नहीं। सद्रव्य मिट्टी आदि है, वही घटाकार रूपसे नष्ट हुई और कपालके रूपसे उत्पन्न हुई, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है।
यदि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परस्पर अपेक्षा न रखें, तो तीनों ही आकाशके पुष्पके समान अवस्तु ठहरें--स्थिति और विनाशके बिना केवल उत्पाद नहीं बनता, नाश और उत्पादके बिना स्थिति नहीं बनती और स्थिति तथा उत्पादके बिना विनाश नहीं बनता। इससे यह स्पष्ट फलित होता है कि जो सत् है वह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसे युक्त है, अन्यथा उसका सत्व ही नहीं बनता, वह आकाशकुसुमके सदृश अवस्तु ठहरता है।'
एक द्रव्यको नाशोत्पादस्थितिमें भिन्न भावोंकी उत्पत्ति घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।।५९।। '( सुवर्ण घटको तोड़कर मुकुटके बनाये जानेपर ) नाश उत्पाद और स्थितिकी जो अवस्थाएँ होती हैं, उनमें यह घटका अर्थी जन शोक (विषाद) को, मुकुटका अर्थी हर्षको और सुवर्णका अर्थी शोक तथा हर्षसे रहित मध्यस्थ-भावको प्राप्त होता है और
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