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देवागम
कारिका ६३ ] आदि अनेक अधिकरणोंमें उसका वर्तना नहीं बनता और प्रत्येकमें सर्वात्मकरूपसे वृत्तिके होने पर एक अवयवी आदिके बहुत्वका प्रसंग उपस्थित होता है-जितने अवयव उतने ही अवयवी ठहरते हैं, जितने संयोगी आदि गुणी उतने ही अनेक अवयवोंमें स्थित संयोगादि गुण ठहरते हैं और जितने सामान्यवान् अर्थ उतने ही सामान्य होने चाहिये । परन्तु ऐसा नहीं है। अतः एककी अनेकमें सर्वात्मक अथवा सर्वदेश वृत्ति माननेसे, आर्हतमतसे भिन्न जो सर्वथा एकान्तमत है उसमें दोष आता है। इस तरह एककी अनेकमें वृत्तिका मानना और न मानना दोनों ही सदोष ठहरते हैं । एकदेशरूप और सर्वात्मक वृत्तिसे भिन्न वृत्तिका अन्य कोई प्रकार नहीं है।'
( यदि वैशेषिकमतकी मान्यतानुसार समवाय-सम्बन्धको प्रकारान्तर माना जाय-यह कहा जाय कि समवाय-सम्बन्धके कारण अवयवी आदि अवयवादिकमें वर्तता है, बिना समवायसम्बन्धके वर्तनके अर्थका अभाव है तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि यहाँ भी वही प्रश्न पैदा होता है कि अवयवी आदिकी अवयवादिकमें वह समवायवृत्ति एकदेश है अथवा सर्वात्मक ? और दोनोंमें से किसी भी प्रकारकी समवायवृत्तिको मानने पर वही दोष घटित होता है, जिसे ऊपर बतलाया गया है।)
देश-काल-विशेषेऽपि स्यावृत्तियुत-सिद्धवत् । समान-देशता न स्यान्मूर्तकारण-कार्ययोः ॥६३।। ( यदि अवयवादि और अवयवी आदिमें सर्वथा भेद स्वीकार किया जाय तो) देश और कालकी अपेक्षासे भी उनमें-अवयवादि और अवयवी आदिमें-भेद मानना पड़ेगा और तब युत-सिद्धके समान-पृथक्-पृथक् आश्रयमें रहने वाले घट-वृक्षकी तरहउनमें भी वृत्ति ( समवाय-सम्बन्धकी वर्तना) माननी होगी।
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