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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद २ जाता है-वह सब नहीं बनता-अर्थात् क्रमभावी पर्यायोंमें जो उत्तरोत्तर परिणाम-प्रवाहरूप अन्वय है वह घटित नहीं होता, रूप-रसादि जैसे सहभावी धर्मों में जो युगपत् उत्पाद-व्ययको लिये हुए एकत्र अवस्थानरूप समुदाय है वह भी नहीं बनता, सहधर्मियों में समान परिणामकी जो एकता है वह भी नहीं बनती और न मरकर परलोकमें जाना अथवा एक ही जीवका दूसरा भव या शरीर धारण करना ही बनता है। इसी तरह बालयुवा-वृद्धादि अवस्थाओंमें एक ही जीवका रहना नहीं बनता और (चकारसे ) प्रत्यभिज्ञान-जैसे सादृश्य तथा एकत्वके जोड़रूप ज्ञान भी नहीं बनते।'
ज्ञानको ज्ञेयसे सर्वथा भिन्न मानने में दोष सदात्मना च भिन्नं चेज्ज्ञानं ज्ञेयाद् द्विधाऽप्यसत् । ज्ञानाऽभावे कथं ज्ञेयं बहिरन्तश्च ते द्विषाम ।।३०॥
( इसी तरह ) ज्ञानको ( जो कि अपने चैतन्यरूपसे ज्ञेयप्रमेयसे पृथक् है ) यदि सत्स्वरूपसे भी ज्ञेयसे पृथक् माना जायअस्तित्वहीन स्वीकार किया जाय-तो ज्ञान और ज्ञेय दोनोंका ही अभाव ठहरता है-ज्ञानका अभाव तो उसके अस्तित्व-विहीन होनेसे हो गया और ज्ञेयका अभाव ज्ञानाभावके कारण बन गया; क्योंकि ज्ञानका जो विषय हो उसे ही ज्ञेय कहते हैं-ज्ञानके अभावमें बाह्य तथा अंतरंग किसी भी ज्ञेयका अस्तित्व ( हे वीर जिन ! ) आपसे द्वेष रखनेवालोंके यहाँ-सर्वथा पथक्त्वैकान्तवादी वैशेषिकादिकोंके मतमें-कैसे बन सकता है ?-उनके मतसे उसकी कोई भी समीचीन व्यवस्था नहीं बन सकती।
वचनोंकों सामान्यार्थक मानने में दोष सामान्याऽर्था गिरोऽन्येषां विशेषो नाऽभिलष्यते । सामान्याऽभावतस्तेषां मृषैव सकला गिरः ॥३१॥
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