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कारिका ५२]
देवागम अबद्ध-चित्तकी होती है; क्योंकि हिंसाका अभिप्राय करनेवाला चित्त वैसा अभिप्राय करनेके क्षणमें ही नष्ट हो जाता है और उत्तरक्षणमें दूसरा चित्त, जिसने हिंसाका कोई इरादा, विचार अथवा संकल्प नहीं किया, उस हिंसा-कार्यको करता है, उस हिंसक चित्तके तत्क्षण नष्ट हो जानेपर तीसरे क्षणमें तीसरा ही चित्त, जिसने न तो हिंसाका कोई संकल्प किया और न हिंसाकार्य ही किया, उस द्वितीय चित्तके हिंसाकर्मसे बन्धनको प्राप्त होता है और बन्धको प्राप्त हुए उस तृतीय चित्तके भी तत्क्षण नष्ट हो जानेपर उसे उस पापकर्मके बन्धनसे मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती-तब मुक्ति किसकी होती है ? क्या अबद्ध-चित्तकी भी मुक्ति बनती है ? नहीं बनती। मुक्तिके बन्धपूर्वक होनेसे जब बन्धन ही नहीं तब बन्धनसे छुटकारा पानेरूप मुक्ति कैसी ? इस तरह बौद्धोंके यहाँ कृतकर्मके फलका नाश और अकृतकर्मके फल-भोगका प्रसंग उपस्थित होता है-अर्थात् जिसने कर्म किया वह उसके फलका भोक्ता नहीं होता और जिसने कर्म नहीं किया उसे उस कर्मका फल भोगना होता है, जो कि एक उपहासका विषय है। इसके सिवाय जब बद्ध-चित्तकी मुक्ति नहीं होती तब मुक्तिके लिये यम-नियमादिका अनुष्ठान व्यर्थ ठहरता है।'
___ नाशको निर्हेतुक माननेपर दोषापत्ति अहेतुकत्वान्नाशस्य हिंसाहेतुर्न हिंसकः ।
चित्त-सन्तति-नाशश्च मोक्षो नाष्टाङ्ग हेतुकः ॥५२॥ ___(क्षणिक एकान्तवादी बौद्धमतके अनुसार नाश स्वयं होता है, उसका कोई कारण नहीं होता, जब नाशका कोई कारण नहीं होता तब हिंसक हिंसाका हेतु नहीं ठहरता—किसीको हिंसक कहना नहीं बनता। इसी तरह चित्त-सन्ततिके नाशरूप जो मोक्ष माना गया है वह भी अष्टाङ्गहेतुक नहीं बनता । बौद्धोंके यहाँ मोक्ष (निर्वाण ) को जो सम्यक्त्व, संज्ञा, संज्ञी, वाक्काय
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