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कारिका ५५, ५६ ] देवागम
४९ न होनेसे वे कोई कार्य नहीं रहते तब उनके लिये हेतु-समागमकी कल्पना ही व्यर्थ ठहरती है।'
उभय तथा अवक्तव्य एकान्तोंकी सदोषता विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ।।५।। 'यदि नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों एकान्तपक्षोंको एक रूपमें माना जाय तो यह बात स्याद्वादन्यायके विद्वेषियोंके-सर्वथा एकान्तवादियोंके-यहां बनती नहीं; क्योंकि इस मान्यतामें विरोध दोष आता है-जैसा कि एक साथ जीने-मरनेमें विरोध है वैसा ही विरोध यहाँ भी घटित होता है।' ।
(यदि दोनों एकान्तोंका तादात्म्य माना जाय तो नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों या तो नित्यत्वरूप में परिणत हो जायँगे या अनित्यत्वरूपमें; क्योंकि तादात्म्यावस्था में विरोधी स्थिति न रहकर एक ही स्थिति हो जाती है। जब नित्यत्व-अनित्यत्वरूप दोनों एकान्तोंमेंसे किसी एक ही एकान्तकी स्थिति रही तब युगपत् उभय एकान्तोंकी मान्यता विरुद्ध ठहरती है।)
'यदि ( नित्यत्व व अनित्यत्व दोनों एकान्तोंकी मान्यतामें विरोधकी उपस्थितिके भयसे) अवाच्यता ( अनभिलाप्यता) का एकान्त माना जाय तो वह भी नहीं बनता; क्योंकि सर्वथा अवाच्यका सिद्धान्त माननेपर 'तत्त्व सर्वथा अनभिलाप्य है' ऐसा अभिलाप (वचन-व्यवहार ) करनेवाले बौद्धोंके स्ववचनविरोध उपस्थित होता है-उसी प्रकार जिस प्रकार कि उस पुरुषके उपस्थित होता है जो यह कहे कि 'मैं सदा मौनव्रती हूँ'; क्योंकि उसका वैसा कहना उसके सदा मौन-व्रतका विरोधी है।'
नित्य-क्षणिक-एकान्तोंकी निर्दोष व्यवस्थाविधि नित्यं तत्प्रत्यभिज्ञानान्नाकस्मात्तदविच्छिदा । क्षणिकं कालभेदात्ते बुद्धयसंचरदोषतः ॥५६।।
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