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कारिका ५४ ]
देवागम उसका कोई कारण नहीं है, वह स्वरसतः होता है, तो कारणों( हिंसाजनक हिंसक और मोक्षहेतु सम्यक्त्वादि अष्टाङ्ग ) का व्यापार किसके लिए होता है ? इस प्रश्नका वे यह समाधान करते हैं कि विसदृश-कार्यके उत्पादके लिए कारणोंका व्यापार होता है। परन्तु उनका यह समाधान ठीक नहीं है; क्योंकि कारणोंका व्यापार नाश तथा उत्पाद दोनोंका जनक होनेसे आश्रय है और आश्रय अपने आश्रयीसे--उत्पाद-नाशसेअनन्य-अभिन्न होता है, भिन्न नहीं। कारण कि उन दोनोंमें परस्पर कोई अन्तर नहीं है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि अपृथक्-सिद्ध पदार्थोके कारण-व्यापारमें भेद नहीं होता। शिंशपा और वृक्ष तथा चित्रज्ञान और नीलादि-निर्भास इन अपृथक्-सिद्ध पदार्थोंसे उनका कारण-व्यापार भिन्न नहीं है। एक कारण-समूहसे ही उनका आत्मलाभ होता है। वास्तवमें जो पूर्वाकारका विनाश है वही उत्तराकारका उत्पाद है। अतः दोनोंका कारण एक ही सामग्री है, भिन्न नहीं। अन्यथा, वैशेषिक मतका प्रसंग आवेगा। कैसा आश्चर्य है कि विसदृशकार्यके उत्पादक कारणोंसे विनाशके कारण भिन्न न होनेसे उसे तो निर्हेतुक स्वीकार किया जाता है, और विनाशके कारणोंसे उत्पादके कारण भिन्न न होनेसे उसे निर्हेतुक नहीं माना जाता ! अतः नाश और उत्पादमें कोई अन्तर न होनेसे दोनोंको सहेतुक या अहेतुक मानना चाहिए। एकको अहेतुक और दूसरेको सहेतुक मानना युक्तियुक्त नहीं है।
स्कन्धादिके स्थित्युत्पत्तिव्यय नहीं बनता स्कन्ध-सन्ततयश्चैव संवृतित्वादसंस्कृताः । स्थित्युत्पत्तिव्ययास्तेषां न स्युः खर-विषाणवत् ॥५४॥ '( जब क्षणिक एकान्तवादी बौद्धोंके द्वारा विरूप-कार्यारम्भके लिये हेतुका समागम माना जाता है तब यह प्रश्न पैदा
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