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४४ समन्तभद्र-भारती
परिच्छेद ३] अवक्तव्य है ?-या अभावके कारण ?-वस्तु-धर्मका अस्तित्व न होनेसे अवक्तव्य है ? अथवा अज्ञानके कारण ?-वस्तुधर्मोंकी अनभिज्ञता-अजानकारीसे अवक्तव्य है ? (इन तीन कारणोंसे भिन्न अन्य कोई कारण नहीं हो सकता; क्योंकि मौनव्रत, प्रयोजनाभाव, भय और लज्जादिक जैसे कारणोंका, जो कि इन्द्रियताल्वादिकरणव्यापारकी अशक्तिमें निमित्तकारण होते हैं, अशक्तिमें ही अन्तर्भाव है । ) इन तीनोंमें आदि और अन्तके दो कारणोंका (अशक्ति तथा अज्ञान ) का कथन तो बनता नहीं; क्योंकि बौद्धोंने महात्मा बुद्धको प्रज्ञापारमिताके रूपमें सर्वज्ञ माना है और उसमें क्षमा, मैत्री, ध्यान, दान, वीर्य, शील, प्रज्ञा, करुणा, उपाय और प्रमोद नामके दस बल अंगीकार किये हैं। ऐसी स्थितिमें उक्त दो कारणोंका कथन कैसे बन सकता है ? नहीं बन सकता। तब तीसरा कारण ही शेष रह जाता है । अतः अवक्तव्यका बहाना बनानेसे क्या ? स्पष्ट कहिये कि वस्तुतत्त्वका सवथा अभाव है-किसी भी वस्तुका कहीं कोई अस्तित्व नहीं है। ऐसा स्पष्ट कहनेसे मायाचारका दोष नहीं रहेगा, जो कि . बुद्धके आप्तत्वमें बाधक पड़ता है, और तब इस अवक्तव्यवाद और सर्वथा अभावरूप शून्यवादमें कोई अन्तर नहीं रहेगा।'
क्षणिकैकान्तमें हिंमा-अहिंसादिकी विडम्बना हिनस्त्यनभिसंधात न हिनस्त्यभिसंधिमत् ।
बध्यते तवयापेतं चित्तं बद्धं न मुच्यते ॥५१॥ '( बौद्धोंके क्षण-क्षणमें निरन्वय-विनाशरूप सिद्धान्तके अनुसार ) जो चित्त हिंसाके अभिप्रायसे रहित है वह तो हिसा करता है, जो हिंसा करनेके अभिप्रायसे युक्त है वह हिंसा नहीं करता, जिसने हिंसाका कोई अभिप्राय अथवा संकल्प नहीं किया
और न हिंसा ही की वह चित्त बन्धनको प्राप्त होता है और जो चित्त बन्धनको प्राप्त होता है उसकी मुक्ति नहीं होती--मुक्ति अन्य
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