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का रिका ५० ] देवागम
४३ 'यदि (क्षणिक एकान्तवादी बौद्धोंके द्वारा ) यह कहा जाय कि 'सर्व धर्म अवक्तव्य हैं'-सर्वथा वचनके अगोचर हैं तो फिर उनका धर्म-देशना-रूप तथा स्वपक्षके साधन और पर-पक्षके दूषणरूप वचन कैसा ?-वह किसी तरह भी नहीं बन सकेगा और एकमात्र मौनका ही शरण लेना होगा; क्योंकि ‘सर्व धर्म अवक्तव्य हैं' इस कथनमें स्ववचन-विरोधका दोष उसी तरह सुघटित होता है जिस तरह कि कोई अपने मुखसे दूसरोंको यह प्रतिपादन करे कि 'मैं सदाके लिये मौनव्रती हूँ'; क्योंकि उस समय वह बोल रहा है इसलिये उसका सदाके लिये मौनव्रती होना स्वयं उसके उस वचनसे ही बाधित हो जाता है। सर्व धर्मोके सर्वथा अवक्तव्य होनेपर उनकी कोई चर्चा-वार्ता नहीं बन सकती, उन्हें अवक्तव्य कहना भी नहीं बनता, अवक्तव्य कहना भी उन्हें वक्तव्य ठहराता है।'
'यदि यह कहा जाय कि उक्त वचन संवृतिरूप है-व्यवहारके प्रवर्तनार्थ उपचाररूपको लिये हुए है तो इस संवृतिरूप वचनसे सत्य का प्रतिपादन कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता; क्योंकि संवृति परमार्थके विपरीत-यथार्थताके विरूद्ध-होनेसे स्वयं बौद्धोंके यहाँ मिथ्या मानी गई है। सर्वधर्म जब सर्वथा अवक्तव्य हैं तब वे 'अवक्तव्य हैं' इस वचनके द्वारा भी वक्तव्य नहीं बन सकते और न दूसरोंको उनका तथा उनकी अवक्तव्यताका प्रत्यय ( बोध ) कराया जा सकता है।'
अवाच्यका हेतु अशक्ति, अभाव या अबोध ? अशक्यत्वादवाच्यं किमभावात्किमबोधतः । आधन्तोक्ति-द्वयं न स्याकि व्याजेनोच्यतां स्फुटम् ॥५०।।
'यहाँ क्षणिक एकान्तवादी बौद्धोंसे पूछा जाता है कि तुम्हारा यह सर्वथा अवक्तव्य कथन किस हेतुपर अवलम्बित है। क्या अशक्तिके कारण?-कथन करनेकी सामर्थ्य न होनेसे
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