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कारिका ४८] देवागम
४१ अतः एकान्तसे कोई वस्तु अवक्तव्य या अविशेष्य-विशेषणरूप नहीं है, ऐसा बौद्धोंको जानना चाहिये ।' ... अवस्तुकी अवक्तव्यता और वस्तुकी अवस्तुता
अवस्त्वनभिलाप्यं स्यात्सर्वान्तः परिवर्जितम् । वस्त्वेवाऽवस्तुतां याति प्रक्रियाया विपर्ययात् ।।४।। 'जो सर्वधर्मोसे रहित हैं वह अवस्तु है-किसी भी प्रमाणका विषय न होनेसे-और जो अवस्तु है वह (ही सर्वथा) अनभिलाप्य ( अवाच्य ) है न कि वस्त; क्योंकि जो वस्तु है वह प्रमाणके द्वारा परिनिष्ठित ( प्रतिष्ठित ) होती है और इसलिये सर्वथा अनभिलाप्य नहीं होती। ___( यदि यह कहा जाय कि सकल-धर्मोसे रहित निरुपाख्य वस्तु स्याद्वादियोंके द्वारा स्वीकृत नहीं है तब उनका यह वचन कि 'अवस्तु अनभिलाप्य है' युक्त नहीं जान पड़ता, तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि सर्वधर्मोंसे रहित अवस्तुका अनभिलाप्यरूपमें कथन पर-परिकल्पनामात्रसे सम्बन्ध रखता है, न कि प्रमाणबलसे), प्रमाणबलसे तो वस्तु ही अवस्तुताको प्राप्त होती है, प्रक्रियाके विपरीत हो जाने अथवा बदल जानेसे अर्थात् जब किसी वस्तुकी स्वद्रव्यादिचतुष्टयलक्षण-प्रक्रिया, जो कि कथंचिद्रूपको लिये हुए होती है, बदल जाती है-परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षाको धारण करती है-तब वह वस्तु ही अवस्तु बन जाती है। जैसे स्वरूपसिद्ध घटके पटादि-पररूपोंकी अपेक्षा-पटादिके किसी भी रूपको घट माननेकी दृष्टिसे-अघटपना है।
( यदि यह कहा जाय कि वस्तुको हो अवस्तु बतलाना परस्पर विरुद्ध है; क्योंकि वस्तु और अवस्तुकी स्थिति एक-दूसरेके परिहाररूप है-वस्तु अवस्तु नहीं होती और न अवस्तु कभी वस्तु बनती है तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि अभाव-वाचक शब्दोंके वचन-द्वारा भी भावका अभिधान ( कथन ) होता है; जैसे
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