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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद ३ विशेषणभाव नहीं बनता-न वह विशेष्य है और न विशेषण ।'
(और यदि यह कहा जाय कि स्वसंवेदनसे विशेषणविशेष्यरहित ही तत्त्व प्रतिभासित होता है तो वह ठीक नहीं; क्योंकि स्वसंवेदनके भी सत्त्व (अस्तित्व) विशेषणकी विशिष्टतासे विशेष्य का ही अवभासन होता है। स्वसंवेदनके उत्तरकालमें होनेवाले विकल्पबुद्धिमें 'स्वका संवेदन' इस प्रकार विशेषण-विशेष्यभाव अवभासित होता है-स्वसंवेदनके स्वरूप में नहीं । यदि यह कहा जब कि स्वसंवेदन अविशेष्य-विशेषणरूप है और वह स्वतः प्रतिभासित होता है तो इससे ( भी ) स्वसंवेदनमें विशेषण-विशेष्यभाव सिद्ध होता है; क्योंकि वैसा कहनेपर अविशेषणविशेष्यत्व ही विशेषण हो जाता है।)
निषेध सत्का होता है असत्का नहीं द्रव्याद्यन्तरभावेन निषेधः संज्ञिनः सतः ।
असद्भेदो न भावस्तु स्थानं विधि-निषेधयोः ॥४७॥ 'यदि विशेषण-विशेष्यभावको सर्वथा असत् माना जाय तो उसका निषेध नहीं बनता; क्योंकि ) जो संज्ञी ( स्वद्रव्य-क्षेत्रकाल-भावकी अपेक्षा ) सत् होता है उसीका परद्रव्य-क्षेत्र-कालभावकी अपेक्षा निषेध किया जाता है, न कि असत्का। सर्वथा असत् पदार्थ तो विधि-निषेधका विषय ही नहीं होता-जो पदार्थ परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षाके समान स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षासे भी असत् है वह सर्वथा असत् है, उसकी विधि कैसी ? जिसकी विधि नहीं उसका निषेध नहीं बनता; क्योंकि निषेध विधि-पूर्वक होता है। और इसलिये जो सत् होकर अपने द्रव्यादिकी अपेक्षा कथंचित् वक्तव्य है उसीके ( परद्रव्यादिकी अपेक्षा निषेध होनेसे ) अवक्तव्यपना यक्त ठहरता है। और जो सतपदार्थ स्वदव्यादिकी अपेक्षा कथंचित् विशेषण-विशेष्यरूप है उसीके ( परद्रव्यादिकी अपेक्षा ) अविशेष्य-विशेषणपना ठीक घटित होता
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