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समन्तभद्र-भारती [ परिच्छेद ३ है वह सन्तानीसे पृथक नहीं होता-सर्वथा पृथकरूपमें उसका अस्तित्व बनता ही नहीं ।'
संवृति और मुख्यार्थकी स्थिति अन्येष्वनन्यशब्दोऽयं संवृतिर्न मृषा कथम् । मुख्यार्थः संवृतिर्न स्याद् विना मुख्यान्न संवृतिः ॥४४॥
'यदि ( बौद्धोंकी ओरसे ) यह कहा जाय कि अन्योंमें अनन्य शब्दका यह जो व्यवहार है--सर्वथा भिन्न चित्त-क्षणोंको जो सन्तानके रूपमें अनन्य, अभिन्न अथवा एक आत्मा कहा जाता है-वह संवृति है-काल्पनिक अथवा औपचारिक है, वास्तविक नहीं तो सर्वथा संवृतिरूप होनेसे वह मिथ्या क्यों नहीं है ? अवश्य ही मिथ्या है, और इसलिये उसके आधारपर सन्तान आत्मा जैसी कोई वस्तु व्यवस्थित नहीं बनती। यदि संतानको मुख्य अर्थके रूपमें माना जाय तो मुख्यार्थ होता है वह सर्वथा संवृतिरूप नहीं होता और यदि संवृतिरूपमें उसे माना जाय तो सांवृत्ति बिना मुख्यार्थके बनती नहीं-मुख्यके बिना उपचारकी प्रवृत्ति होती ही नहीं; जैसे सिंहके सद्भाव-बिना सिंहका चित्र नहीं बनता।'
चतुष्कोटि-विकल्पके अवक्तव्यको बौद्ध-मान्यता चतुष्कोटेर्विकल्पस्य सर्वान्तेषक्त्ययोगतः । तत्त्वाऽन्यत्वमवाच्यं चेत्तयोः सन्तानतद्वतोः ॥४५॥ 'यदि ( बौद्धोंकी ओरसे ) यह कहा जाय कि चूंकि सब धर्मोंमें चतुष्कोटिविकल्पके कथनका अयोग है-सत्त्व-एकत्वादि किसी भी धर्मके विषयमें यह कहना नहीं बन सकता कि वह सत्-रूप है या असत्-रूप है अथवा सत् असत् दोनों ( उभय ) रूप है या दोनोंरूप नहीं ( अनुभयरूप ) है; क्योंकि सर्वथा सत् कहने पर
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