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समन्तभद्र-भारती
[परिच्छेद ३
नित्यत्वैकान्तमें पुण्य-पापादि नहीं बनते पुण्य-पाप-क्रिया न स्यात्प्रेत्यभावः फलं कुतः । बन्ध-मोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः ॥४०॥
‘(ऐसी स्थितिमें हे वीरजिन !) जिनके आप (अनेकान्तवादी) नायक ( स्वामो ) नहीं हैं उन सर्वथा नित्यत्वैकान्तवादियोंके यहां ( मतमें ) पुण्य-पापकी क्रिया-मन-वचन-कायकी शुभ या अशुभ प्रवृत्तिरूप अथवा उत्पादव्ययरूप कोई क्रिया-नहीं बनती, (क्रियाके अभावमें) परलोक-गमन भी नहीं बनता, ( सुख-दुःखरूप ) फलप्राप्तिकी तो बात ही कहाँसे हो सकती है ?-वह भी नहीं बन सकती-और न बन्ध तथा मोक्ष ही बन सकते हैं। तब सर्वथा नित्यत्वके एकान्तपक्षमें कौन परीक्षावान् किसलिए आदरवान् हो सकता है ? उसमें सादर-प्रवृत्तिके लिये किसी भी परीक्षकके वास्ते कोई भी आकर्षण अथवा कारण नहीं है।'
क्षणिक-एकान्तकी सदोषता क्षणिकैकान्त-पक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसम्भवः । प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न कार्यारम्भः कुतः फलम् ॥४१॥
(नित्यत्वैकान्तमें दोष देख कर ) यदि क्षणिक एकान्तका पक्ष लिया जाय-बौद्धोंके सर्वथा अनित्यत्वरूप एकान्तवादका आश्रय लेकर यह कहा जाय कि सर्व पदार्थ क्षण-क्षणमें निरन्वयविनाशको प्राप्त होते रहते हैं, कोई भी उनमें स्थिर नहीं हैतो भी प्रेत्यभावादिक असंभव ठहरते हैं-परलोकगमन और बन्ध तथा मोक्षादिक नहीं बन सकते । ( इसके सिवाय प्रत्यभिज्ञान, स्मरण और अनुमानादि जैसे ज्ञान भी नहीं बन सकते ) प्रत्यभिज्ञानादि जैसे ज्ञानोंका अभाव होनेसे कार्यका आरम्भ नहीं बनता और जब कार्यका आरम्भ ही नहीं तब उसका ( सुखदुःखादिरूप अथवा पुण्य-पापादिरूप ) फल तो कहाँसे हो सकता
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