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समन्तभद्र-भारती
[परिच्छेद ३ और जब कारकोंका अभाव है तब ( प्रमाताका भी अभाव होनेसे ) प्रमाण और प्रमाणका फल जो प्रमिति (सम्यग्ज्ञप्ति-यथार्थ जानकारी ) है, ये दोनों कहाँ बन सकते हैं ?-नहीं बन सकते। इनके तथा प्रमाताके अभावमें 'नित्यत्व एकान्तका पक्ष लेनेवाले सांख्योंके यहाँ जीवतत्त्वकी सिद्धि नहीं बनती और न दूसरे ही किसी तत्त्वकी व्यवस्था ठीक बैठती है।'
प्रमाण और कारकोंके नित्य होनेपर विक्रिया कैसी ? प्रमाण-कारकैर्व्यक्तं व्यक्तं चेदिन्द्रियाऽर्थवत् । ते च नित्ये विकार्य किं साधोस्ते शासनाद्बहिः ।।३८।।
( यदि सांख्यमत-वादियोंकी ओरसे यह कहा जाय कि कारणरूप जो अव्यक्त पदार्थ है वह सर्वथा नित्य है, कार्यरूप जो व्यक्त पदार्थ है वह नित्य नहीं, उसे तो हम अनित्य मानते हैं और इसलिए हमारे यहाँ विक्रिया बनती है, तो ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ) इन्द्रियोंके-द्वारा उनके विषयकी अभिव्यक्तिके समान जिन 'प्रमाणों तथा कारकोंके द्वारा अव्यक्तको व्यक्त हुआ बतलाया जाता है वे प्रमाण और कारक दोनों ही जब सर्वथा नित्य माने गये हैं तब उनके द्वारा विक्रिया बनती कौन-सी है ?-- सर्वथा नित्यके द्वारा कोई भी विकाररूप क्रिया नहीं बन सकती और न कोई अनित्य कार्य ही घटित हो सकता है। हे साधो !-वीर भगवन् !-आपके शासनके बाह्य-आपके द्वारा अभिमत अनेकान्तवादकी सीमाके बाहर--जो नित्यत्वका सर्वथा एकान्तवाद है उसमें विक्रियाके लिये कोई स्थान नहीं है-सर्वथा नित्य कारणोंसे अनित्य कार्योंकी उत्पत्ति या अभिव्यक्ति बन ही नहीं सकती और इसलिये उक्त कल्पना भ्रममूलक है।'
कार्यके सर्वथा सत् होनेपर उत्पत्ति आदि नहीं बनती यदि सत्सर्वथा कार्य पुंवन्नोत्पत्तुमर्हति । परिणाम-प्रक्तृप्तिश्च नित्यत्वैकान्त-बाघिनी ।।३९।।
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