Book Title: Aptamimansa
Author(s): Samantbhadracharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 101
________________ समन्तभद्र-भारती [ परिच्छेद २ गौण और मुख्यकी विवक्षाको लिये हुए एकमात्र अविरोधरूपसे रहते हैं-फलतः जिनके मतमें भेद और अभेदको परस्पर निरपेक्ष माना है उनके यहाँ वे विरोधको प्राप्त होते हैं और बनते ही नहीं।' ( ऐसी स्थितिमें (१) सर्वथा भेदवादी बौद्ध, जो पदार्थो के भेदको ही परमार्थ सत्के रूपमें स्वीकार करते हैं-अभेदको नहीं; अभेदको संवृति ( कल्पनारोपित ) सत् बतलाते हैं और अन्यथा विरोधकी कल्पना करते हैं; (२) सर्वथा अभेदवादी ब्रह्माद्वती आदि, जो पदार्थो के अभेदको ही तात्त्विक मानते हैं-भेदको नहीं; भेदको कल्पनारोपित बतलाते हैं और अन्यथा दोनोंमें परस्पर विरोधकी कल्पना करते हैं; (३) सर्वथा शून्यवादी बौद्ध, जो भेद और अभेद दोनोंमेंसे किसीको भी परमार्थ सत्के रूपमें स्वीकार नहीं करते किन्तु उन्हें संवृति-कल्पनाका विषय बतलाते है; और (४) उभयवादी नैयायिक. जो भेद और अभेद दोनोंको सतरूपमें मानते तो हैं, परन्तु दोनोंको परस्पर निरपेक्ष बतलाते हैं; ये चारों ही यथार्थ वस्तु-तत्त्वका प्रतिपादन करनेवाले सत्यवादी नहीं हैं। इन सबकी दृष्टिसे इस कारिकाके अर्थका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है:___ 'अभेद सत् स्वरूप ही है-संवृति ( कल्पना ) के विषयरूप नहीं; क्योंकि वह भेदकी तरह प्रमाण-गोचर है। भेद सत्रूप ही है-संवृतिरूप नहीं, प्रमाण-गोचर होनेसे, अभेदकी तरह। भेद और अभेद दोनों सत् रूप हैं-संवृतिके विषयरूप नहीं, प्रमाणगोचर होनेसे, अपने इष्ट तत्त्वकी तरह; और इस प्रकार एक अन्य पक्ष भी संग्रहीत होता है; क्योंकि उन दोनोंको संवृतिरूप बतलानेवालों एवं वस्तुको समस्त धर्मोसे शून्य माननेवालों (शून्यवादियों) १. यह स्पष्टीकरण श्रीविद्यानन्दाचार्यने अपनी अष्टसहस्री-टीकामें "इति कारिकायामर्थसंग्रहः" इस वाक्यके साथ दिया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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