________________
३१
कारिका ३३ ]
देवागम भावकी जुदी-जुदी अपेक्षाको लेकर-सब ( जीवादि पदार्थ ) पृथक् हैं-इसलिये पृथक्त्वकी प्रतीतिका विषय द्रव्यादि-भेद होनेसे वह निविषय नहीं है । जिस प्रकार असाधारण हेतु अभेदकी दृष्टि से एकरूप और भेदकी दृष्टिसे अनेकरूप है उसी प्रकार सब पदार्थो में भेदको विवक्षासे पृथक्त्व और अभेदको विवक्षासे एकत्व सुघटित है।
विवक्षा तथा अविवक्षा सत्की ही होती है विवक्षा चाविवक्षा च विशेष्येऽनन्त-धर्मिणि ।
सतो विशेषणस्याऽत्र नाऽसतस्तैस्तदर्थिभिः ॥३५॥ '( यदि यह कहा जाय कि विवक्षा और अविवक्षाका विषय तो असत्रूप है तब उनके आधारपर तत्त्वकी व्यवस्था कैसे युक्त हो सकती है तो ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ) अनन्तधर्मा विशेष्यमें विवक्षा तथा अविवक्षा जो की जाती है वह सत् विशेषणको ही की जाती है असत्की नहीं और यह उनके द्वारा की जाती है जो उस विशेषणके अर्थी या अनर्थी हैं—अर्थी विवक्षा करता है और अनर्थी अविवक्षा। जो सर्वथा असत् है उसके विषयमें किसीका अर्थीपना या अनर्थीपना बनता ही नहीं-वह तो सकल-अर्थक्रियासे शून्य होनेके कारण गधेके सींगके समान अवस्तु होता है।'
एक वस्तुमें भेद और अभेदकी अविरोध-विधि प्रमाण-गोचरौ सन्तौ भेदाभेदौ न संवृती। तावेकत्राविरुद्धौ ते गुण-मुख्य-विवक्षया ॥३६॥
(हे वीर जिन ! ) भेद (पृथक्त्व) और अभेद (एकत्व-अद्वैत) दोनों (धर्म) सतरूप हैं-परमार्थभूत हैं-संवृतिके विषय नहीं-कल्पनारोपित अथवा उपचारमात्र नहीं हैं; क्योंकि दोनों प्रमाणके विषय हैं-( इसीसे ) आपके मतमें वे दोनों एक वस्तु में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org