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कारिका २९, ३० ] देवागम
'दूसरोंके यहाँ-बौद्धोंके मतमें-बचन सामान्यार्थक हैं; क्योंकि उनके द्वारा ( उनकी मान्यतानुसार ) विशेषकायाथात्म्यरूप स्वलक्षणका-कथन नहीं बनता है। ( वचनोंके मात्र सामान्यार्थक होनेसे वे कोई वस्तु नहीं रहते-बौद्धोंके यहाँ उन्हें वस्तु माना भी नहीं गया और विशेषके अभावमें सामान्यका भी कहीं कोई अस्तित्व नहीं बनता, ऐसी हालतमें सामान्यके भी अभावका प्रसंग उपस्थित होता है ) सामान्यका अवस्तुरूप अभाव होनेसे उन ( बौद्धों) के सम्पूर्ण वचन मिथ्या ही ठहरते हैं-वे वचन भी सत्य नहीं रहते जिन्हें वे सत्यरूपसे प्रतिपादन करते हैं।'
उभय तथा अवक्तव्य एकान्तोंकी सदोषता विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति ज्वाच्यमिति युज्यते ॥३२॥
'(अद्वत और पृथक्त्व दोनों एकान्तोंकी अलग-अलग मान्यतामें दोष देखकर ) यदि अद्वत ( एकत्व ) और पृथक्त्व दोनोंका एकात्म्य ( एकान्त ) माना जाय तो स्याद्वाद-न्यायके विद्वेषियोंके यहाँ-उन लोगोंके मतमें जो अद्वत पृथक्त्वादि सप्रतिपक्ष धर्मों में पारस्परिक अपेक्षाको न मानकर उन्हें स्वतंत्र धर्मो के रूपमें स्वीकार करते हैं और इस तरह स्याद्वाद-न्यायके शत्रु बने हुए हैं-वह एकात्म्य नहीं बनता ( उसी प्रकार जिस प्रकार कि अस्तित्व-नास्तित्वका एकात्म्य नहीं बनता); क्योंकि उससे ( बन्ध्या-पुत्रकी तरह ) विरोध दोष आता है-अद्वतकांत पृथक्त्वैकांतका और पृथक्त्वैकांत अद्वतकांतका सर्वथा विरोधी होनेसे दोनोंमें एकात्मता घटित नहीं हो सकती।' __(अद्वत, पृथक्त्व और उभय तीनों एकान्तोंकी मान्यतामें दोष देखकर ) यदि अवाच्यता ( अवक्तव्यता ) एकान्तको माना जाय-यह कहा जाय कि वस्तुतत्त्व एकत्व या पृथक्त्वके रूपमें सवथा अवाच्य ( अनिर्वचनीय या अवक्तव्य ) है तो वस्तुतत्त्व
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