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देवागम
पृथक्त्व - एकान्तकी सदोषता
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पृथक्त्वैकान्त-पक्षेऽपि पृथक्त्वादपृथक्तु तौ । पृथक्त्वेन पृथक्त्वं स्यादनेकस्थो ह्यसौ गुणः ||२८||
कारिका २६, २७ ]
' ( अद्वैत एकान्त में दोष देखकर ) यदि पृथक्पनका एकान्तपक्ष लिया जाय - यह माना जाय कि वस्तुतत्त्व एक दूसरेसे सर्वथा भिन्न है - तो इसमें भी दोष आता है और यह प्रश्न पैदा होता है कि पृथक्त्व - गुणसे द्रव्य और गुण पृथक् हैं या अपृथक् ? यदि अपृथक् हैं तब तो पृथक्त्वका एकान्त ही न रहा- वह बाधित हो गया और यदि पृथक हैं तो पृथक्त्व नामका कोई गुण ही नहीं बनता ( जिसे वैशेषिकोंने गुणोंकी २४ संख्या में अलगसे गिनाया है ) क्योंकि वह एक होते हुए भी अनेकोंमें स्थित माना गया है और इसकी कोई पृथकरगति नहीं है - पृथक् रूपमें उसकी स्थिति न तो दृष्ट है और न स्वीकृत है, अतः पृथक् कहनेपर उसका अभाव ही कहना होगा ।
[ यह कारिका वैशेषिकों तथा नैयायिकोंके पृथक्त्वकान्त पक्षको लक्ष्य करके कही गयी है, जो क्रमशः ६ तथा १६ पदार्थ मानते हैं और उन्हें सर्वथा एक दूसरेसे पृथक् बतलाते हैं । अगली कारिकामें क्षणिकान्तवादी बौद्धोंके पृथक्त्वकान्तपक्षको सदोष बतलाया जाता है । ]
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२७
एकत्व के लोपमें सन्तानादिक नहीं बनते संतानः समुदायश्च साधर्म्यञ्च निरंकुशः । प्रेत्य भावश्च तत् सर्वं न स्यादेकत्व -निवे ||२९||
'यदि एकत्वका सर्वथा लोप किया जाय - सामान्य, सादृश्य, तादात्म्य अथवा सभी पर्यायोंमें रहनेवाले द्रव्यत्वको न माना जाय - तो जो संतान, समुदाय और साधर्म्य तथा प्रेत्यभाव ( मरकर परलोकगमन ) निरंकुश है— निर्बाध रूप से माना
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