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कारिका २४ ]
देवागम रूप कोई विकल्प ही बनता है; फलतः सारा लोक-व्यवहार बिगड़ जाता है। ( यदि यह कहा जाय कि जो एक है वही विभिन्न कारकों तथा क्रियाओंके रूपमें परिणत होता है तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ) जो कोई एक है-सर्वथा अकेला एवं असहाय है-वह अपनेसे ही उत्पन्न नहीं होता।-उसका उस रूपमें जनक और जन्मका कारणादिक दूसरा ही होता है, दूसरेके अस्तित्व एवं निमित्तके बिना वह स्वयं विभिन्न कारकों तथा क्रियाओंके रूपमें परिणत नहीं हो सकता।
कर्म-फलादिका कोई भी द्वैत नहीं बनता कर्म-द्वैतं फल-द्वैतं लोक-द्वैतं च नो भवेत् । विद्याऽविद्या-द्वयं न स्याद्बन्ध-मोक्ष-द्वयं तथा ।।२५॥ '( सर्वथा अद्वत सिद्धान्तके माननेपर ) कर्म-द्वैत-शुभअशुभ कर्मका जोड़ा, फल-द्वत-पुण्य-पापरूप अच्छे-बुरे फलका जोड़ा और लोक-द्वैत-फल भोगनेके स्थानरूप इहलोक परलोकका जोड़ा-नहीं बनता। ( इसी तरह ) विद्या-अविद्याका द्वैत ( जोड़ा ) तथा बन्ध-मोक्षका द्वत ( जोड़ा ) भी नहीं बनता। इन द्वतों ( जोड़ों) में से किसी भी द्वैतके माननेपर सर्वथा अद्वत का एकान्त बाधित होता है । और यदि प्रत्येक जोड़ेकी किसी एक वस्तुका लोपकर दूसरो वस्तुका ही ग्रहण किया जाय तो उस दूसरी वस्तुके भी लोपका प्रसंग आता है; क्योंकि एकके बिना दूसरीका अस्तित्व नहीं बनता, और इस तरह भी सारे व्यवहारका लोप ठहरता है।'
हेतु आदिसे अद्वैत-सिद्धि में द्वैतापत्ति हेतोरद्वैत-सिद्धिश्चेद्वैतं स्याद्ध तु-साध्ययोः। हेतुना चेद्विना सिद्धिद्वैतं वाङ्मात्रतो न किम् ॥२६॥
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