________________
२४ समन्तभद्र-भारती
[परिच्छेद २ इसलिये एकत्वके बिना अनेकत्व और अनेकत्वके बिना एकत्व नहीं बनता; न वस्तुतत्त्व सर्वथा एकरूपमें या सर्वथा अनेकरूपमें व्यवस्थित ही होता है, दोनोंमें वह अनवस्थित है और तब ही अर्थ-क्रियाका कर्ता है; एकत्वादि किसी एकधर्मके प्रधान होनेपर दूसरा धर्म अप्रधान हो जाता है।'
[इसके आगे अद्वैतादि एकान्तपक्षोंको लेकर, उनमें दोष दिखलाते हुए, वस्तु-व्यवस्थाके अनुकूल विषयका स्पष्टीकरण किया जायगा।]
इति देवागमाप्तमीमांसायां प्रथमः परिच्छेदः ।
द्वितीयपरिच्छेद
अद्वत-एकान्तकी सदोषता अद्वैतैकान्त-पक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते ।
कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात्प्रजायते ॥२४॥ 'यदि अद्वैत एकान्तका पक्ष लिया जाय-यह माना जाय कि वस्तुतत्त्व सर्वथा दुई ( द्वितीयता ) से रहित एक ही रूप है तो कारकों और क्रियाओंका जो भेद ( नानापन ) प्रत्यक्षप्रमाणसे जाना जाता अथवा स्पष्ट दिखाई देनेवाला लोकप्रसिद्ध ( सत्य ) है वह विरोधको प्राप्त होता ( मिथ्या ठहरता ) हैकर्ता, कर्म, करणादि-रूपसे जो सात कारक अपने असंख्य तथा अनन्त भेदोंको लिये हुए हैं उनका वह भेद-प्रभेद नहीं बनता
और न क्रियाओंका चलना-ठहरना, उपजना-विनशना, पचानाजलाना, सकोडना-पसारना, खाना-पीना और देखना-जानना आदि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |