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कारिका २०, २१] देवागम
२३ एवं परिगृहीत नहीं है-वह अर्थ-क्रियाकी करनेवाली होती है। यदि ऐसा नहीं माना जाय तो बाह्य और अन्तरंग कारणोंसे कार्यका निष्पन्न होना जो माना गया है वह नहीं बनता-सर्वथा सत्-रूप या सर्वथा असत्-रूप वस्तु अर्थ-क्रिया करने में असमर्थ है, चाहे कितने भी कारण क्यों न मिलें, और अर्थ-क्रियाके अभावमें वस्तुतः वस्तुत्व बनता ही नहीं।'
धर्म-धर्ममें अर्थभिन्नता और धर्मोकी मुख्य-गौणता धर्म धर्मऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनन्त-धर्मिणः । अङ्गित्वेऽन्यतमान्तस्य शेषान्तानां तद(दा)ङ्गता ॥२२।।
'अनन्तधर्मा धर्मोके धर्म-धर्ममें अन्य ही अर्थ संनिहित हैधर्मीका प्रत्येक धर्म एक जुदे ही प्रयोजनको लिए हुए है। उन धर्मों से किसी एक धर्मके अङ्गी ( प्रधान ) होनेपर शेष धर्मोकी उसके अथवा उस समय अङ्गता ( अप्रधानता ) हो जाती हैपरिशेष सब धर्म उसके अङ्ग अथवा उस समय अप्रधान रूपसे विवक्षित होते हैं।
उक्त भंगवती प्रक्रियाकी एकाऽनेकादिविकल्पोंमें भी योजना एकाऽनेक-विकल्पादावृत्तरत्रापि योजयेत् ।
प्रक्रियां भङ्गिनीमेनां नयनय-विशारदः ॥२३॥ ____ 'जो नय-निपुण है वह ( विधि निषेधमें प्रयुक्त ) इस भंगवती (सप्तभङ्गवती) प्रक्रियाको आगे भी एक-अनेक जैसे विकल्पादिकमें नयोंके साथ योजित करे-जैसे सम्पूर्ण वस्तुतत्त्व कथंचित् एकरूप है, कथंचित् अनेकरूप है, कथंचित् एकाऽनेकरूप है, कथंचित् अवक्तव्यरूप है, कथंचित् एकावक्तव्यरूप है, कथंचिदनेकावक्तव्यरूप है और कथंचिदेकाऽनेकाऽवक्तव्यरूप है। एकत्वका अनेकत्वके साथ और अनेकत्वका एकत्वके साथ अविनाभावसम्बन्ध है, और
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