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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद २
' ( इसके सिवाय यह प्रश्न पैदा होता है कि अती सिद्धि किसी हेतुसे की जाती है या बिना किसी हेतुके वचनमात्रसे हो ?उत्तरमें ) यदि यह कहा जाय कि अद्वैतकी सिद्धि हेतुसे की जाती है तो हेतु ( साधन ) और साध्य दोकी मान्यता होनेसे द्वतापत्ति खड़ी होती है - सर्वथा अद्व ेतका एकान्त नहीं रहता - और यदि बिना किसी हेतुके ही सिद्धि कही जाती है तो क्या वचनमात्रसे द्वैतापत्ति नहीं होती ? - साध्य अद्वैत और वचन, जिसके द्वारा साध्यकी सिद्धिको घोषित किया जाता है, दोनोंके अस्तित्व से अद्वैतता नहीं रहती । और यह बात तो बनती ही नहीं कि जिसका स्वयं अस्तित्व न हो उसके द्वारा किसी दूसरेके अस्तित्वको सिद्ध किया जाय अथवा उसकी सिद्धिकी घोषणा की जाय । अतः अद्वैत एकान्तकी किसी तरह भी सिद्धि नहीं बनती, वह कल्पनामात्र ही रह जाता है ।'
द्वैत के बिना अद्वैत नहीं होता
अद्वैतं न बिना द्वैतादहेतुरिव हेतुना | संज्ञनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादृते क्वचित् ||२७||
( एक बात और भी बतला देनेकी है और वह यह कि ) द्वैत बिना अद्वैत उसी प्रकार नहीं होता जिस प्रकार कि हेतुके बिना अहेतु नहीं होता; क्योंकि कहीं भी संज्ञीका - नामवालेकाप्रतिषेध प्रतिषेध्यके बिना — जिसका निषेध किया जाय उसके अस्तित्व- बिना - नहीं बनता - द्वैत शब्द एक संज्ञी है और इसलिये उसके निषेधरूप जो अद्वैत शब्द है वह द्व ेतके अस्तित्वको मान्यता - बिना नहीं बनता । )
[इस प्रकार अद्वैत एकान्तका पक्ष लेनेवाले ब्रह्माद्व ैत, संवेदनाऔर शब्दात जैसे मत सदोष एवं बाधित ठहरते हैं । ]
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