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कारिका १६, १७ ]
देवागम ( अन्वय-हेतु ) भेद-विवक्षा ( वैधर्म्य अथवा व्यतिरेक हेतु ) के साथ अविनाभाव-सम्बन्धको लिए रहता है-व्यतिरेक (वैधर्म्य ) के बिना अन्वय ( साधर्म्य ) और अन्वयके बिना व्यतिरेक घटित नहीं होता।
नास्तित्वधर्म अस्तित्वके साथ अविनाभावी नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधर्मिणि । विशेषणत्वाद्वैधय यथाऽभेद-विवक्षया ॥१८॥ ( इसी तरह ) एक धर्मीमें नास्तित्वधर्म अपने प्रतिषेध्य( अस्तित्व ) धर्मके साथ अविनाभावी है-अस्तित्वधर्मके बिना वह नहीं बनता-क्योंकि वह विशेषण है-जो विशेषण होता है वह अपने प्रतिषेध्य ( प्रतिपक्ष ) धर्मके साथ अविनाभावी होता है-जैसे कि ( हेतु-प्रयोगमें) वैधर्म्य ( व्यतिरेक हेतु ) अभेदविवक्षा ( साधर्म्य या अन्वय-हेतु ) के साथ अविनाभाव सम्बन्धको लिए रहता है-अन्वय ( साधर्म्य ) के बिना व्यतिरेक ( वैधर्म्य ) और व्यतिरेकके बिना अन्वय घटित ही नहीं होता।'
शब्दगोचर-विशेष्य विधि-निषेधात्मक विधेयप्रतिषेध्यात्मा विशेष्यः शब्दगोचरः ।
साध्यधर्मों यथा हेतुरहेतुश्चाप्यपेक्षया ॥१९॥ 'जो विशेष्य ( धर्मी या पक्ष ) होता है वह विधेय तथा प्रतिषेध्य-स्वरूप होता है-विधिरूप अस्तित्वधर्म और निषेधरूप नास्तित्वधर्म दोनोंको अपना विषय किये रहता है; क्योंकि वह शब्दका विषय होता है-जो-जो शब्दका विषय होता है वह सब विशेष्य विधेय-प्रतिषेध्यात्मक हआ करता है। जैसे कि साध्यका जो धर्म एक विवक्षासे हेतु ( साधन ) रूप होता है वह दूसरी विवक्षासे अहेतु ( असाधन ) रूप भी होता है। उदाहरणके लिए साध्य
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