________________
२० समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद १ घटित नहीं होता। अतः अन्यथा मानने में तत्त्व या वस्तुकी कोई व्यवस्था बनती ही नहीं, यह भारी दोष उपस्थित होता है।'
उभय तथा अवक्तव्यकी निर्दोष मान्यतामें हेतु क्रमार्पित-द्वयाद् द्वैतं सहाऽवाच्यमशक्तितः ।
अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुतः ॥१६॥ 'वस्तुतत्त्व कथञ्चित् क्रम-विवक्षित स्व-पर-चतुष्टयकी अपेक्षा द्वैत-( उभय ) रूप-सदसद्रूप अथवा अस्तित्वनास्तित्वरूप-है और कथञ्चित् युगपत् विवक्षित स्व-परचतुष्टयको अपेक्षा कथनमें वचनकी अशक्ति-असमर्थताके कारण अवक्तव्यरूप है। ( इन चारोंके अतिरिक्त ) सत्, असत् और उभयके उत्तरमें अवक्तव्यको लिए हुए जो शेष तीन भंगसदवक्तव्य, असदवक्तव्य और उभयावक्तव्य-हैं वे ( भी ) अपनेअपने हेतुसे कथञ्चित् रूपमें सुघटित हैं-अर्थात् वस्तुतत्त्व यद्यपि स्वरूपादि-चतुष्टयकी अपेक्षा कथञ्चित् अस्तिरूप है तथापि युगपत् स्व-पर-चतुष्टयकी अपेक्षा कहा न जा सकनेके कारण अवक्तव्यरूप भी है और इसलिए स्यादस्त्यवक्तव्यरूप है; इसी तरह स्यान्नास्त्यवक्तव्य और स्यादस्ति-नास्ति-अवक्तव्य इन दो भंगोंको भी जानना चाहिए।'
___ अस्तित्वधर्म नास्तित्वके साथ अविनाभावी अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येक-धर्मिणि । विशेषणत्वात्साधयं यथा भेद-विवक्षया ॥१७॥
एक धर्मोमें अस्तित्वधर्म नास्तित्वधर्मके साथ अविनाभावी है-नास्तित्वधर्मके बिना अस्तित्वधर्म नहीं बनता-क्योंकि वह विशेषण है-जो विशेषण होता है वह अपने प्रतिषेध्यके (प्रतिपक्षधर्मके) साथ अविनाभावी होता है जैसे कि (हेतु-प्रयोगमें) साधर्म्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org