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समन्तभद्र-भारती - [परिच्छेद १ (भावैकान्त और अभावैकान्त दोनोंकी अलग-अलग मान्यतामें दोष देखकर ) यदि भाव और अभाव दोनोंका एकात्म्य (उभयैकान्त) माना जाय, तो स्याद्वाद-न्यायके विद्वेषियोंके यहाँउन लोगोंके मतमें जो अस्तित्व-नास्तित्वादि सप्रतिपक्ष धर्मोंमें पारस्परिक अपेक्षाको न मानकर उन्हें स्वतन्त्र धर्मोके रूपमें स्वीकार करते हैं और इस तरह स्याद्वाद-नीतिके शत्रु बने हुए हैं-वह एकात्म्य नहीं बनता; क्योंकि उससे विरोध दोष आता है-भावैकान्त अभावैकान्तका और अभावैकान्त भावैकान्तका सर्वथा विरोधी होनेसे दोनोंमें एकात्मता घटित नहीं हो सकती।'
'( भाव, अभाव और उभय तीनों एकान्तोंकी मान्यतामें दोष देखकर ) यदि अवाच्यता ( अवक्तव्य ) एकान्तको माना जाय-यह कहा जाय कि वस्तुतत्त्व सर्वथा अवाच्य (अनिर्वचनीय या अवक्तव्य ) है-तो वस्तुतत्त्व 'अवाच्य' है ऐसा कहना भी नहीं बनता-इस कहनेसे ही वह 'वाच्य' हो जाता है, 'अवाच्य' नहीं रहता; क्योंकि सर्वथा अवाच्यकी मान्यतामें कोई वचनव्यवहार घटित ही नहीं हो सकता।'
उक्त एकान्तोंकी निर्दोष विधि-व्यवस्था कथञ्चित्ते सदेवेष्टं कथञ्चिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नय-योगान्न सर्वथा ॥१४॥ '( स्याद्वाद-न्यायके नायक हे वीर भगवन् ! ) आपके शासनमें वह वस्तुतत्त्व कथञ्चित् ( किसी प्रकारसे ) सत्-रूप ही है, कथञ्चित् असत्-रूप ही है, कथञ्चित् उभयरूप ही है, कञ्चित् अवक्तव्यरूप ही है (चकारसे) कथञ्चित् सत् और अवक्तव्य, रूप हो है; कथञ्चित् असत और अवक्तव्यरूप ही है, कथञ्चित् सदसत् और अवक्तव्यरूप ही है; और यह सब नयोंके योगसे है-वक्ताके अभिप्राय-विशेषको लिए हुए जो सप्तभंगात्मक नय
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