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कारिका ११]
देवागम प्रवादियोंका विवक्षित अपना-अपना इष्ट एक तत्त्व ( अनिष्टतत्त्वों का भी उसमें सद्भाव होनेसे ) अभेदरूप सर्वात्मक ठहरता हैऔर इसलिए उसकी अलगसे कोई व्यवस्था नहीं बन सकती। यदि अत्यन्ताभावका लोप किया जाय-एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें सर्वथा अभाव है, इसको न माना जाय-तो एक द्रव्यका दूसरेमें समवाय-सम्बन्ध ( तादात्म्य ) स्वीकृत होता है और ऐसा होनेपर यह चेतन है, यह अचेतन है इत्यादि रूपसे उस एक तत्त्वका सर्वथा भेदरूपसे कोई व्यपदेश ( कथन ) नहीं बन सकता।'
अभावैकान्तकी सदोषता अभावैकान्त-पक्षेऽपि भावाऽपन्हव-वादिनाम् । बोध-वाक्यं प्रमाणं न केन साधन-दूषणम् ।।१२।। 'यदि अभावैकान्तपक्षको स्वीकार किया जाय-यह माना जाय कि सभी पदार्थ सर्वथा असत्-रूप हैं तो इस प्रकार भावोंका सर्वथा अभाव कहनेवालोंके यहाँ ( मतमें ) बोध ( ज्ञान) और वाक्य (आगम ) दोनोंका ही अस्तित्व नहीं बनता और दोनोंका अस्तित्व न बननेसे ( स्वार्थानुमान, परार्थानुमान आदिके रूपमें ) कोई प्रमाण भी नहीं बनता; तब किसके द्वारा अपने अभावैकान्त पक्षका साधन किया जा सकता और दूसरे भाववादियोंके पक्षमें दूषण दिया जा सकता है ?--स्वपक्ष-साधन और परपक्ष-दूषण दोनों ही घटित न होनेसे अभावैकान्तपक्षवादियोंके पक्षकी कोई सिद्धि अथवा प्रतिष्ठा नहीं बनती और वह सदोष ठहरता है; फलतः अभावैकान्तपक्षके प्रतिपादक सर्वज्ञ एवं महान् नहीं हो सकते।'
उभय और अवक्तव्य एकान्तोंकी सदोषता विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नाऽवाच्यमिति युज्यते ॥१३॥
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