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समन्तभद्र-भारती
[परिच्छेद १ प्रागभाव-प्रध्वंसाभावके विलोपमें दोष कार्य-द्रव्यमनादि स्यात्प्रागभावस्य निलवे ।
प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥१०॥ 'प्रागभावका यदि लोप किया जाय-कार्यरूप द्रव्यका अपने उत्पादसे पहले उस कार्यरूपमें अभाव था, इस बातको न माना जाय-तो वह कार्यरूप द्रव्य-घटादिक अथवा शब्दादिकअनादि ठहरता है-और अनादि वह है नहीं, एक समय उत्पन्न हुआ, यह बात प्रत्यक्ष है । यदि प्रध्वंस धर्मका लोप किया जायकार्यद्रव्यमें अपने उस कार्यरूपसे विनाशकी शक्ति है और इसलिए वह बादको किसी समय प्रध्वंसाभावरूप भी होता है, इस बातको यदि न माना जाय-तो वह कार्यरूप द्रव्य-घटादिक अथवा शब्दादिक-अनन्तता-अविनाशिताको प्राप्त होता है-और अविनाशी वह है नहीं, यह प्रत्यक्ष सिद्ध होता है, प्रत्यक्षमें घटादिक तथा शब्दादिक कार्योका विनाश होते देखा जाता है। अतः प्रागभाव और प्रध्वंसाभावका लोप करके कार्यद्रव्यको उत्पत्ति और विनाश-विहीन सदासे एक ही रूपमें स्थिर ( सर्वथा नित्य ) मानना प्रत्यक्ष-विरोधके दोषसे दूषित है और इसलिए प्रागभाव तथा प्रध्वंसाभावका लोप किसी तरह भी समुचित नहीं कहा जा सकता । इन अभावोंको मानना ही होगा।'
अन्योऽन्याभाव-अत्यन्ताभावके विलोपमे दोष सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्याऽपोह-व्यतिक्रमे ।
अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ।।११।। 'यदि अन्याऽपोहका-अन्योन्याभावरूप पदार्थका-व्यतिक्रम किया जाय-वस्तुके एक रूपका दूसरे रूपमें अथवा एक वस्तुका दूसरी वस्तुमें अभाव है, इस बातको न माना जाय तो वह
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